SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 253 एते हृषीकहरयः संयम कवकापर प्रयोगेण । __दान्ता यैहि समनत्ते मुनिराजाः सदा प्रणम्या मे ॥83 इसमें, संयमी रूपी लगाम के उत्कृष्ट प्रयोग से इन्द्रिय रूपी अश्वों का सब ओर से दमन करने वाले मुनिवरों अर्थात इन्द्रिय विजयी साधुओं को प्रणाम किया गया है। इसी प्रकार उत्प्रेक्षा, निदर्शना, दृष्टान्त अर्थातर न्यास, काव्यलिङ्ग, प्रभृति अलङ्कारों की छटा भी निदर्शित है। भाषा शैली __ श्रद्धेय पं. जी की भाषा प्रभावपूर्ण होने के साथ माधुर्य गुणमयी है। इनके पद्यों के भाव तुरन्त बोधगम्य हो जाते हैं । जिससे विषय के स्वाभाविक विकास में बाधा उपस्थित नहीं होती है । पं. जी ने इस कृति में इनकी प्रखर प्रतिभा और कोमल पदावली के निजी माध्यम से अपनी छाप बना ली है । पं. जी की सबसे बड़ी विशेषता है कि मानव के उदात्त गुणों के प्रकर्ष को उसके अभ्युदय के योग्य बनाकर धार्मिकता का विन्यास करना। इस ग्रन्थ में मोक्ष मार्ग परार्थ को काव्य के धर्म के साथ प्रकट किया है । इससे दार्शनिक और धार्मिक तत्वों का ग्रहण सहज ढङ्ग से हो गया है । विद्वान् कवि आप्त कथनों के प्रति नितान्त सहिष्णु है। इन्होंने अपने स्वतंत्र विचारों के साथ प्राचीन साहित्य के प्रति अपनी अभिरूचि भी प्रकट की है । पौराणिक आख्यानों का सङ्केत इस ग्रन्थ में उचित स्थानों पर वर्णित है । इस ग्रन्थ के पद्य सरलता के साथ ही उत्कृष्ट प्रभावशालिता है । जिससे मानवता का अभ्युदय और मुक्ति का सन्देश मिलता है । वे अपने निजी आध्यात्मिक ज्ञान को अदम्य उत्साह वितरित करना चाहते हैं। उनके विचारों पर उनके व्यक्तित्व की छाप पद-पद पर मिलती है। इनके इस काव्य की परिधि में निम्नलिखित शैलियों का समावेश हो जाता है (1) दृष्टान्त शैली, (2) उपदेशात्मक शैली, (3) अध्यात्मिक शैली, (4) विवरणात्मक शैली, (5) तार्किक शैली, (6) विवेचानात्मक शैली, (7) निवेदनात्मक । रचना शैली की विविधता के परिप्रेक्ष्य में यह उल्लेखनीय है कि उक्त सभी शैली रूपों में वैदर्भी रीति की प्रधानता है, यह कृति प्रसाद और माधुर्य, गुणों से ओत-प्रोत है। श्लोकों में सङ्गीतात्मकता और गेयता विद्यमान है । धर्मकुसुमोद्यानः विवेच्य रचना "धर्मकुसुमोद्यान" समस्त साहित्यिक तत्त्वों से मण्डित है - रसानुभूति इसमें मानव मन के दस आदर्श भावों को धर्म के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। अत: आद्योपान्त शान्तरस की अभिव्यञ्जना है, दूसरे रसों कहीं उपलब्धि नहीं होती। एक उदाहरण से शान्तरस को स्पष्ट किया जा सकता है - सन्तोषामृत तुष्टा स्त्रिलोक राज्यं तृणाय मन्यते । अपि भोः ? कष्ट सहस्त्रां, पतिता दुःखं लभन्ते न
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy