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- 240क्षमया शोभते विद्या, कुलं शीलेन शोभते ।
गुणेन शोभते । रूपं, धनं त्यागेन शोभते ॥1 ___ इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रस्तुत कृति की भाषा और भावों में पूर्ण समन्वय है । यह रचना आलङ्कारिक छटा एवं सरस, सरल, और प्रसादगुण पूर्ण भाषा के कारण लोकप्रिय
शैली आचार्य श्री ने अपनी प्रसादगुण पूर्ण संवाद शैली में ही सम्पूर्ण ग्रन्थ का प्रणयन किया है । इस शैली में कवि की मौलिक प्रतिभा और मनोवैज्ञानिक वर्णन शक्ति अंकित है इस ग्रन्थ में वैदर्भीरीति की विपुलता है । प्रत्येक विषय को जिज्ञासापूर्वक प्रश्न के रूप में प्रस्तुत किया गया है तत्पश्चात् विस्तार से सरस पद्यों में उनका उत्तर समाहित है । कवि ने प्रश्नोत्तर शैली में ही अगाध पाण्डित्य एवं अद्वितीय कवित्व का निरुपण किया है । कहीं-कहीं शैली में व्याख्यात्मक और विवेचनात्मक स्वरूप भी धारण कर लिया है। प्रश्नोत्तर (संवाद शैली - प्रश्न - कस्यास्तित्वादगुरो ब्रूहि सर्व विश्वो वशीभवेत्?
उत्तर - करणा शान्तिदा शक्तिः भक्तिश्च भवनाशिनी । वीरता चोद्यमः शान्ति शौर्य च दक्षता शुचिः ॥ तत्त्वज्ञतात्मबुद्धिः स्यान्मिथः मैत्री सुखप्रदा ।
इत्यादि भावना यत्र-तत्र विश्वो वशी भवेत् ॥ 342 इसके साथ ही भाषा शैली में प्रसाद माधुर्य शब्दगुण भी विविध पद्यों में विद्यमान हैं यह रचना प्रसादगुण प्रधान ही है । पदे-पदे इसके दर्शन होते हैं । वैदर्भी रीति की उपस्थिति भी दर्शनीय है और इसी के अनुरूप अभिधा शक्ति का निदर्शन भी है ।
इस प्रकार शैलीगत अध्ययन करने पर कहा जा सकता है कि यह रचना साहित्यिक एवं काव्यशास्त्रीय समस्त तत्वों से परिपूर्ण एक नीतिविषयक ग्रन्थ है । जिसमें समाज कल्याण, जन जागरण, सदाचार, दर्शन आदि को भाव प्रवणता के साथ प्रस्तुत किया गया है । इसमें आलंकारिकता भावानुकूल है - आचार्य श्री का चिन्तन और दर्शन उससे अप्रभावित ही है वैदर्भीरीति का बाहुल्य है और संगीतात्मकता आ गई है ।
श्रावक धर्म प्रदीप
रस विवेच्य ग्रन्थ की विषय सामग्री शान्तिप्रिय श्रावकों के स्वरूप, आचार विचार, दिनयचर्या तथा आदर्शों पर आधारित है । इसलिए यह शान्त रस प्रधान ग्रन्थ है । शान्तरस के अनुक पद्य विद्यमान है । एक पद्य उदाहरणार्थ प्रस्तुत है जिसमें श्रावकों की धार्मिक प्रवृत्ति का विवेचन हुआ है -
सद्धर्मसंस्कारवशालि येन यज्ञोपवीतोऽपि धृतस्यिरत्नः दानार्चनादौ च क्रता प्रवृत्तिः स पाक्षिक्स्ययासुखशान्तिभूति:343
जो रत्नत्रय के प्रतीक त्रिसूत्रात्मक यज्ञोपवीत को धारण करता है सद्धर्म के प्रति आस्थावान होता है । वह दान, पूजा में दत्तचित्त शांति और सुख की प्रतिमा ही होता है ।
यहाँ श्रावक आश्रय और आलम्बन है यज्ञोपवीत दान, पूजा आदि उद्दीपन विभाव है। मंत्रोच्चारण, जाप अनुभाव है तथा निर्वेद, त्याग, सञ्चारी भाव है । अतः शान्तरस प्ररूपित है।