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________________ 239 इसके साथ ही शान्तिसुधा सिन्धु ग्रन्थ में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अपह्नति के दर्शन भी किये जा सकते हैं । उपमा अलंकार का प्रयोग अत्यधिक पद्यों में किया गया है सम्भवतः अपने मौलिक सिद्धान्त और चिन्तन को उपमा के माध्यम से ही सुस्पष्ट किया है - यथैव मेधाः पवन प्रसङ्गातप्रजा स्त्रथा दुष्ट नृपस्य सङ्गात । मिथाः प्रबोधादिति तेपि शान्ति लब्धालभन्ते समयं स्वराज्यम् ।।34 भावार्थ यह कि जिस प्रकार पवन के, संयोग से बादल एवं दुष्ट राजा के संयोग से प्रजा गिर जाती है, उसी प्रकार अज्ञानी जीव भयानक भवसिन्धु में गिर जाते हैं । यहाँ बादल व प्रजा, उपमेय एवं अज्ञानी जीव उपमान हुए । यह अन्य उदाहरण में कहते हैं। जैसे सूर्य के बिना दिन उसी प्रकार गुरु के बिना यह संसार ही शून्य है - यथार्थ तत्त्व प्रविदर्शकेन, स्वानन्दभू.गुरुणा विना हि । सम्पूर्ण विश्वं प्रमिभाति शून्यं, सूर्येण हीनं च दिनं यथा को 35 इसी प्रकार रूपक अलङ्कार भी विभिन्न अध्यायों में प्रयुक्त हुआ है । रूपक से | सम्बद्ध एक पद्य अधोलिखित है । यहाँ कर्मरूपी चोर द्वारा महादुःखरूपी समुद्र को बढ़ाने | वाले मोहरूपी रस्सी से समस्त जीवों के बाँधे जाने का विवेचन हुआ है - दृढ़ प्रगाढेन च मोहरज्जु-नान्त्य दुःखाब्धि विवर्द्धकेन । बध्वेति जीवान खलकर्मचौरा, दृठान्नयन्त्यैव च यत्र-तत्र ॥37 यहाँ उपमेय कर्म, दुःख, मोह में उपमान क्रमशः चोर, समुद्र, रस्सी का अभेद वर्णन किया गया है । एक अन्य उदाहरण द्वारा कर्मरूपी शत्रु की प्रबलता का वर्णन किया है - मोहोद्भवः कर्मरिपुर्हणत्कौ राजानमेवापि करोति रङ्कम् रङ्क तथा राज्यपदान्वितं च करोति मूढं चतुरं क्षणाति:38 इसके पश्चात् उत्प्रेक्षा अलङ्कार भी विभिन्न दृश्यों में आया है । यहाँ एक उदाहरण | में उत्प्रेक्षा के साथ अपन्हुति अलङ्कार का भी प्रयोग दर्शनीय है - मायाचार (दुराचार) पूर्वक उपार्जित धन को धन ही पापों का समूह कमाना ही कहा है - __ मन्ये ततो धनं म स्यात् पापपुञ्जमुजाय॑ते39 मानो वह धन नहीं कमाता पापों का समूह ही कमाता है । इस प्रकार शान्ति सुधा सिन्धु काव्य में पदे-पदे आलङ्कारिक सौन्दर्य की आवृत्ति हुई है। शैलीगत विवेचन प्रस्तुत ग्रन्थ की भाषा शुद्ध साहित्यिक एवं परिष्कृत संस्कृत है । इसमें प्रसङ्गानुकूल भाषा के अनेक रूप परिलक्षित होते हैं । कुन्थुसागरजी की यह भाषा भास एवं कालिदास की बोधगम्य भाषा के समान ही सर्वजनग्राह्य है । इसमें जैन दर्शन के गुढ़ सिद्धान्तों को सजीवता के साथ प्रस्तुत किया गया है । सम्पूर्ण ग्रन्थ में सरस पदावली की अभिव्यंजना है । पदान्त में चतुर्थी विभक्ति के प्रयोग से युक्त एक पद्य प्रस्तुत है - तपो जपध्यान दयान्विताय, स्वानन्द, तृप्ताय निजाश्रिताय । दत्वा यथायोग्य पदाश्रिताय, पात्राय दानं नवधापि भक्त्या ।।340 यहाँ भाषा ने भावों को जन सामान्य तक पहुँचाने में सन्देशवाहक का कार्य किया है और कवि अपने उच्च जीवनदर्शन तथा अध्यात्म से अनुप्राणित भावों को अलंकृत शुद्ध, साहित्यिक संस्कृत के द्वारा व्यक्त करने में पूर्णतः सफल रहा है -
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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