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________________ 238 इसी प्रकार एक पद्य में राज्य, स्वर्ग, सेना, इन्द्रिय, परिवार आदि से प्राप्त सुखों को दुःखदायी बताना विरोधाभास की प्रस्तुति ही है - राज्योद्भवं नामभवं नरोयं सैन्योद्भवं कामपिशाचजातम् । आदोप्रिय प्राण हरंपलान्ते ह्यक्षोद्भव बन्धुकलत्रजातम् ।।26 इस कृति में स्वभावोक्ति अलङ्कार भी विविध अध्यायों में परिलक्षित किया जा सकता है । यहाँ के उदाहरण के द्वारा स्वाभाविक शत्रुभाव के द्वारा स्वभावोक्ति उपस्थित हुआ है मूर्खस्य शत्रुः प्रबलश्च विद्वान् लोकोस्ति भिक्षु कृपणस्य शत्रुः । चौरस्य शत्रुर्नृपतिः सदैवाऽधर्मस्या शत्रुश्च निजात्मधर्मः ।।27 जारास्त्रियः शीलवती च शत्रुः दृष्टस्य शत्रु सृजनश्च तिर्यक् । स्वर्गस्य मोक्षो नरकस्य शत्रुः पूर्वोक्ति रीतिश्च निसर्गतोस्ति ॥ इसी प्रकार कुछ अन्य पद्यों में स्वभावोक्ति के उदाहरण विद्यमान है किन्तु चतुर्थ अध्याय में यह अलंकार विशेषरूप में आया है । शान्ति सुधा सिन्धु ग्रन्थ में प्रतीत अलंकार28 भी यत्र-तत्र प्राप्त होता है - प्रस्तुत पद्य में उपमेय मुनिजनों के लिए अन्य सभी प्रसिद्ध उपमान इन्द्र की विभूति धरणेन्द्र की सम्पदा, साम्राज्य सुख, कामधेनु, चिन्तामणि, कल्पवृक्ष युक्त कानन, उत्तम भोगभूमि एवं आहार आदि तृण के समान उपेक्षणीय है । स्वानन्दतृप्ताय मुनीश्वराय देवेन्द्रलक्ष्मीधर्रणेद्रसम्पत् । नरेन्द्रराज्यं वरकामधेनुश्चिन्तामणिः कल्पतरो बनादि । सुभोगभूमिस्तृणवद्विभान्ति तथा मनोवाञ्छितभोजनादि, कथैव साधारण वस्तुनः का लोके मुनीन महिमाह्यचिन्त्यः ।29 यहाँ उपमेय की अपेक्षा समस्त उपमानों के तिरस्कृत रूप में वर्णित किया है, अतः प्रतीप अलङ्कार है। इसी प्रकार अनेक स्थलों पर व्यतिरेक अलङ्कार30 भी प्रस्तुत हुआ है - ऐसे अनेक पद्य हैं जिनमें उपमेय का उत्कर्ष और उपमान का नगण्य रूप में उपस्थित किया है- अधोलिखित पद्य में व्यतिरेक अलङ्कार के दर्शन होते हैं - चिन्तामणिः कल्पतरुः सुरेशो दासो नरेशोऽपि भवेत्फणीशः । सुभोगभूमिवर कामधेनुः सुखप्रदौ स्वर्गमही स्वदासी । अध्यात्मविद्याकृपया तथा स्यात् स्वानन्द साम्राज्य सुखं समीक्ष्य । ज्ञात्वेत्यविद्यां प्रविहाय भव्यैरध्यात्मविद्या हृदि धारणीया ।।31 दृष्टान्त अलङ्कार32 की छटा भी इस काव्य में विद्यमान है । एक पद्य उदाहरणार्थ प्रस्तुत है - इसमें विद्या, बुद्धि सरोवर बाबडी एवं लक्ष्मी आदि दृष्टान्त के द्वारा यह प्रतिपादित किया है कि जैन सिद्धान्तों की प्रसिद्धि एवं वृद्धि उनका व्यय (प्रचार) करने में है - विद्यादिबुद्धेः सरसश्च वाप्याः सुलब्ध लक्ष्म्याश्च ऽव्यये । .- समूलहानिश्च जिनागमस्य व्ययात्समन्तात्परिवर्द्धते कौ ॥ ज्ञात्वेत्यवश्यं धनबुद्धि लक्ष्म्याः व्ययश्च कार्यों न च रक्षणीयः । यतः स्वबुद्धश्च धनं सुविद्या धर्मोऽपि वर्द्धन्त सदैव लोके ॥33.
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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