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इस ग्रन्थ में शान्त रस अत्यधिक पद्यों में परिलक्षित होता है -
वीभत्स रस भी कतिपय पद्यों में विद्यमान है । एक उदाहरण से इसे स्पष्ट किया जा सकता है - यहाँ मृत पुरुष के गले हुए रोग युक्त दुर्गन्धमय शरीर का वर्णन घृणाभाव उत्पन्न करता है -
मृतस्य देहसंसर्गात् वस्त्रपात्रगृहादिकम् ।
स्याद् दुर्गन्धमयं हेयं तच्चद्धचै सूतकस्य वा ॥4 इसमें मृतपुरुष रस का आश्रय एवं आलम्बन, उसके गले हुए अङ्ग, रोगग्रस्त होना उद्दीपनविभाव है । नाक, बन्द करना, दृष्टि फेरना आदि अनुभाव है, ग्लानि, घृणा आदि सञ्चारी भाव हैं।
श्रावकधर्म का विवेचन होने से इस रचना में प्रधान रस शान्त ही है, अन्य रसों की स्थिति नगण्य है । इस प्रकार अन्य रसों की प्रस्तुति नगण्य ही है । श्रावकों के धर्म का वर्णन होने से शान्त रस की प्रधानता है ।
छन्द इस कृति में कवि ने अनुष्टुप्45, वसन्ततिलका, उपजातिया, इन्द्रवज्रा और आर्या छन्द का प्रयोग किया है । सम्पूर्ण ग्रन्थ का सर्वेक्षण करने पर ज्ञात होता है कि अनुष्टुप् कवि का प्रिय छन्द है । यह छन्द उनकी अन्य रचनाओं में भी बहुलता से आया है ।
श्रावक धर्म प्रदीप में अनुष्टुप् 159 श्लोकों में, वसन्ततिलका 39 पद्यों में, उपजाति 24 पद्यों में, इन्द्रवज्रा 11 श्लोकों में और आर्या । पद्य में प्रयुक्त किये गये हैं ।
अलङ्कार इस श्रावकाचार में अनुप्रास, उपमा, सन्देह, विरोधाभास इत्यादि अलङ्कार परिलक्षित होते हैं -
छेकानुप्रास का एक उदाहरण दृष्टव्य है - सद्धर्मसंस्कार वशाद्धि येन, यज्ञोपवीतोऽपि घृतस्त्रिरत्नः । दानार्चनादौ च कृता प्रवृत्तिः स पाक्षिकास्त्यात्सुखशान्तिमूर्तिः ।।50 यहाँ स, य, न, स, वर्गों की बार-बार आवृत्ति हुई है। .
अन्त्यानुप्रास की छटा - अधोलिखित पद्य में है, जिसमें उक्त समय श्रावक को मौन धारण करने का निर्देश किया है -
___भोजने मैथुने स्नाने, मल-मूत्र-विमोचने । . सामायिकेऽर्चने दाने, वमने च प्रलायने ॥1
यहाँ प्रत्येक शब्द के अन्त में न वर्ण की बार-बार आवृत्ति अन्त्यानुप्रास का सौन्दर्य उपस्थित करती है।
उपमा इस कृति में भी यत्र-तत्र देखा गया है कि उदाहरण निदर्शनीय है - यतो भवेते विमलैव कीर्तिः, स्वराज्यलक्ष्मीश्च सदा स्वदासी 352