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प्रसाद गुण वह है, जो सूखे ईंधन में अग्नि के समान तथा कपड़े में जल के समान सामाजिक के चित्त को व्याप्त कर देता है । सभी रसों में और रचनाओं में होती है 296
निरञ्जन शतकम् में प्रसाद गुण अनेक पद्यों में प्रयुक्त हुआ है । एक उदाहरण दर्शनीय
है
ननु नरेश सुख सुरसम्पदं, न मुनिरिच्छ इहापि चसम्पदम् । जडतनोर्वहनं द्रुतमेत्विति भज ! मतिः खरवत् किल मेत्विति ।। चाहुँ न राज सुख . मैं सुरसम्पदा भी, चाहुँ न मान यशदेह नहीं कदापि । स्वामी ! गधे सम निज तन भार ढोना,
कैसे मिटे कब मिटे मुझको कहो ना ?97 . इस प्रकार तीनों प्रकार के काव्य गुणों की अवस्थिति निरञ्जन शतकम् में है। इस कृति में शैली का स्वच्छ एवं सुरम्य रूप विद्यमान है । शैली के अन्तर्गत काव्य रीति पर भी दृष्टिपात करना समीचीन होगा । रीति काव्य का महत्वपूर्ण तत्त्व है । वामन के अनुसाररीति काव्य की आत्मा है । वे गुणों से निष्पन्न हुई विशिष्टता को रीति मानते हैं - "विशिष्टा पदरचना रीतिः'' ये इस प्रकार की हैं - वैदर्मी, गौड़ी, पाञ्चाली, गुणों के समान ही इनका वर्गीकरण किया जाता है - समग्र गुणोपेता वैदर्भी - अर्थात् औज, प्रसाद और माधुर्य इन गुणों को वैदर्भी गुम्फित करती है ।
गौड़ी रीति में ओजगुण से सम्बद्ध वर्णन समाविष्ट है । माधुर्य की सुकुमारता पाञ्चाली में व्याप्त रहती है ।
इस प्रकार काव्य में रीतियों का महत्त्व भी गुणाश्रित रहता है । उपर्युक्त जो उदाहरण निरञ्जनशतकम् से गुणों के विश्लेषण में उद्धृत किये गये हैं, वहीं रीतियों की पृष्ठभूमि में अभिव्यंजित किये जा सकते हैं । सारांश यह कि निरञ्जन शतकम् में रीतियों का अस्तित्व भी गुणों के समान पाया जाता है । इस प्रकार गुण-रीति का अद्वितीय समन्वय आचार्य श्री की काव्य सृजन शैली में पाया गया है ।
उपर्युक्त समीक्षा के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि शैली का उत्कृष्ट रूप निरञ्जन शतकम् में विद्यमान है ।
__ भाषा शैली का प्राञ्जल, उज्ज्वल रूप आचार्य श्री के ग्रन्थ को गौरवान्वित करने में सक्षम है । शैली में काव्य का सौन्दर्य समाहित हो गया है । भाषा शैली में शब्द शक्तियों का अद्वितीय योगदान रहता है । इनके माध्यम से ही भाषा और शैली परिष्कृत हो जाती है ।
। ये शक्तियाँ शब्द के अर्थ को उपस्थित करती हैं । साहित्य में वाचक, लाक्षणिक और व्यंजक ये तीन भेद शब्द के होते हैं । इन्हीं के अनुसार वाच्य, लक्ष्य और व्यंग्य ये तीन भेद अर्थ के होते हैं 29
वाच्यार्थ को अभिव्यक्त करने वाली अमिधा शब्द शक्ति कहलाती है। मुख्यार्थ के अशक्त होने पर उससे सम्बन्धित अन्य अर्थ को प्रसिद्धि या प्रयोजन वश उपस्थित करने