SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 232 वाली (वृत्ति) या शक्ति लक्षणा है । अमिधा और लक्षणा के विरत हो जाने पर व्यञ्जना नामक वृत्ति से एक नया अर्थ उपस्थित किया जाता है । इसे व्यंग्यार्थ भी कहते हैं 300 इस प्रकार उपर्युक्त पंक्तियों में बीसवीं शती के अग्रगण्य दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर जी मुनि द्वारा विरचित निरञ्जन शतकम् ग्रन्थ की विषयवस्तु और वैशिष्ट्य का विश्लेषण करने के उपरान्त उसके भावपक्ष और कलापक्ष पर भी समीक्षात्मक सोदाहरण विशद प्रकाश डाला गया है। २. भावनाशतकम् भावनाशतकम् का साहित्यिक अध्ययन करने से सुस्पष्ट होता है कि भावना शतकम् आधुनिक संस्कृत साहित्य का एक प्रौढ़ तथा प्राञ्जल शतक काव्य ग्रन्थ है । इसकी आध्यात्मिक विवेचना, आत्मोत्कर्म की विशद व्याख्या, प्राचीन आदर्शों और काव्य के मानदण्डों को साम्प्रतिक परिवेश में विश्लेषित करने की अद्भुत क्षमता प्रत्येक पद्य से प्रस्फुटित होती है । भाव प्रधान इस ग्रन्थ ने अपनी भावाभिव्यक्ति और मौलिक चिन्तना एवं प्रतिपादन शैली से संस्कृत काव्य साहित्य को एक अभिराम रत्न प्रदान किया है। आचार्य श्री की सारगर्भित शब्दावली के माध्यम से उनकी गम्भीर काव्य साधना एवं सुस्पष्ट चिन्तन की झलक मिलती है । भावनाशतकम् की पद योजना में लालित्य है - माधुर्य की विस्तृत विवेचना है - साधो समाधिकरणं सुखकरं च गुणनामाधिकरणम् । न कृतागमाधिकरण करणो न नु कामाधिकरणम् ॥1301 उक्त पद्य में माधुर्य गुण की छटा के दर्शन सहज ही हो रहे हैं । भावना शतकम् में पांचाली रीति का अनुपम निदर्शन है प्रसङ्गानुकूल समासों का प्रचुर प्रयोग और यमकमयी क्लिष्ट पदावली आदि के कारण ग्रन्थ साधारण व्यक्ति की समझ से परे है, अर्थात् इसमें दुरुहता आ गई है । समास बहला - पाञ्चाली रीति का अनूठा प्रयोग है । उदाहरणार्थ पद्य प्रस्तुत है - I चिदानन्द दोषाकरोऽयमशेष दोषो न सदोषाकरः विकसत्वदोषाकरो दोषायां न तु दोषाकरः ॥ 302 अदोषाकरः, दोषाकरः में समास पदों का प्रयोग है तथा दोषाकरः में यमकालङ्कार के माध्यम से माधुर्य की अभिव्यञ्जना की गई है। इस ग्रन्थ के गाम्भीर्य को कोश ग्रन्थों (विश्वलोचन कोष आदि) की सहायता से समझा जा सकता है । इसी आधार पर पं. पन्नालाल साहित्यचार्य ने " भावनाशतकम् " की संस्कृत टीका तैयार की है । भावों को बोधगम्यता प्रदान की दृष्टि से आचार्य श्री ने हिन्दी पद्यानुवाद भी किया है । किन्तु उक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि यह कृति आचार्य श्री के गम्भीर चिन्तन पाण्डित्य और वैदुष्य का उचित प्रतिनिधित्व करती है । ३. श्रमण शतकम् श्रमणशतकम् की भाषा शैली की प्रमुख विशेषताओं के क्रम में यह विचारणीय है कि मधुर पर योजना से युक्त, सहृदयों के हृदय में मधुरिमा की मधुवृष्टि करने में नितान्त समर्थ है । - माधुर्यगुण का प्रसार अद्योलिखित पद्य में निदर्शित है -
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy