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________________ 230 निरञ्जन शतकम् में तत्सम और तद्भव शब्दों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है। भाषा आधुनिक पंक्ति की उच्चकोटि की साहित्यिक है । शब्दावली में समानता रहते हुए अर्थभेद पाया जाता है । अर्थभेद को सूचित करने वाली समान शब्दावली प्रत्येक पद्य में निमयपूर्वक दो-दो बार मिलती है । इस कठिनाई को हल करने के लिए संस्कृत पद्यों के नीचे अन्वय दिया गया है और हिन्दी पद्यों में अनुवाद कर दिया है । कविता को बोधगम्य बनाकर जन-जन के अन्तर्मन में उसका स्थायी प्रभाव अंकित करना कवि का प्रधान कर्तव्य है । इसी उद्देश्य के प्रतिफलित करने के लिए निरंजन शतकसार निरन्तर सचेष्ट हैं। संस्कृत भाषा और साहित्य में अपनी आस्था रखने वाले काव्य प्रणेता शैली की उत्कृष्टता और सुगमता पर अपना समग्र चिन्तन केन्द्रित करते हैं । भाषा और शैली का स्वरूप जानने के लिये गुण और रीति को समझना भी आवश्यक होता है, क्योंकि काव्य में गुणों की अचल स्थिति होती है। ये रस के धर्म कहे जाते हैं । आचार्य वामन ने काव्यशोभायाः कर्तारो धर्मा गुणः अर्थात् (काव्य में शोभा उत्पन्न करने वाले शब्दार्थ के धर्म गुण हैं) उन्होंने 10 गुण माने हैं किन्तु आचार्य मम्मट ने "माधुरमोजः प्रसादाख्यास्त्रयस्ते न पुनर्दश" कहकर उनके मत का खण्डन किया है और इस प्रकार माधुर्य, ओज, प्रसाद इन काव्य गुणों की सत्ता काव्य शास्त्र में स्वीकार की है। प्रस्तुत गुणों की सार्थकता के आधार पर ही किसी काव्य की शैली का सच्चे अर्थों में विवेचन किया जा सकता है । माधुर्य गुण उस गुण को कहते हैं, जो चित्त को द्रवीभूत सा करते हुए प्रसन्न कर देता है । शृंगार करण, शान्त रसों में उसकी स्थिति देखी जा सकती है 2 प्रस्तुत ग्रन्थ निरञ्जन शतकम् में स्थान-स्थान पर माधुर्य गुण विद्यमान है । शान्तरस वातावरण में माधुर्य की सुरम्यता निखर गयी है । चरण युग्ममिदं तव मानसः सनखमौक्तिक इव विमानसाः । भृशमहं विचरामि हि हंसक ! यदिह तत् तटके मुनि हंसके । श्रीपाद मानस सरोवर आपका है होते सुशोभित जहाँ नख मौलिका है। स्वामी तभी मनस हंस मदीय जाता प्रायः वही विचरता, चुग मोती खाता ॥93 औज गुण चित्त को विस्तृत सा करता प्रदीप्त कर देता है । यह वीर वीभत्स एवं रौद्र रसों में पाया जाता है P4 निरञ्जन शतकम् में ओज गुण के दर्शन किये जा सकते हैं - परमवीरक आत्मजयीह त इति शिखोहदि लोकजयी हतः ॥ हो वीर वीर तुम चूंकि निजात्म जेता । मारा कुमार तुमने "शिव" साधु नेता ।।95 यहाँ जिनदेव को वीर, आत्मजयी कामदेव का नाश करने वाला निरूपित किया गया है । अतः ओजगुण निर्देशित है ।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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