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229 तद्रूपकमनैदो य उपमानोपमेययो:285 उपमेय और उपमान का अत्यन्त साम्य के कारण जो अभेद या अभेदारोप है वह रूपक अलङ्कार कहा जाता है । परीषहजय शतकम् के विविध पद्यों में रूपक अलङ्कार दृष्टिगोचर होता है - इस अलङ्कार को अधोलिखित पद्यों में सार्थक कर सकते हैं -
श्रमणतां श्रयतां श्रमणेन या त्वरमिता रमिता भुवने नया ॥286
अर्थात् शील और रूप सम्पन्न समतारूपी रमणी से रमण करके श्रमण (साधु) अपनी पराकाष्ठा कायम रखते हैं। .
___ अशुचि-धामनि चैव निसर्गतः कारणमेव विधेरुपसर्गतः ।87
आचार्य श्री ने शरीर को रोगों का मन्दिर निरूपित किया है । कर्म के द्वारा सभी रोग दूर किये जा सकते हैं । इस प्रकार उपमेय में और उपमान का आरोप होने के कारण यहाँ रूपक अलंकार प्रयुक्त हो गया है ।
भाषा शैली
१. निरञ्जन शतकम् भाषा के द्वारा कवि या लेखक के भावों की अभिव्यक्ति होती है । भाषा हृदय के भावों को प्रकट करने का श्रेष्ठ साधन कही जाती है । इस प्रकार विभिन्न भाषाओं के द्वारा अभिव्यक्त विभिन्न जातियों, धर्मों, संस्कृतियों, इतिहासों आदि उत्थान-पतन का समग्र विवेचन साहित्य जगत में सम्मिलित हुआ है । संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है और यह भाषा देववाणी है। वर्तमान समय में भी संस्कत में विपल साहित्य निर्मित हो रहा है । और प्राचीन संस्कृत साहित्य तो विशालता एवं सर्वोत्कृष्टता की दृष्टि से अग्रगण्य माना जाता है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में संस्कृत भाषा का शुद्ध परिमार्जित स्वरूप परिलक्षित होता है, आचार्य श्री कोमलकान्त पदावली का सरस प्रयोग भावविभोर होकर किया है । आचार्य श्री की लेखनी से आलङ्कारिक सौन्दर्य में सम्पन्न भावातिरेक का प्रसार करने वाली भाषा नित्यप्रति नया वातावरण निर्मित करती हुई स्वरूप धारण करती है । वैसे तो आचार्य श्री की मातृभाषा कन्नड़ है तथापि विशाल संस्कृत और हिन्दी में निबद्ध पद्य रचनाएँ अत्यन्त मनोहर हैं। उनके नित्य प्रति के प्रवचनों से अभिव्यंजित होती हुई भाषा माधुर्य बरसाती हुई साहित्यिकता में आबद्ध होती जाती है । आपकी कृतियों में आध्यात्मिक वातावरण व्याप्त रहते हुए भी भाषा में सजीवता और ऊर्जा है ।
विभुरसीहसताम् जिन सङ्गतः प्रयगसीश सुखीचित सङ्गता ।। ननु तथापि मुनि स्वत सङ्गतः सुखमहं स्मय एष हि सङ्गता । सर्वज्ञ हो इसलिए विभु हो कहाते निःस्सङ्ग हो इसलिए सुख चैन पाते । मैं सर्वसङ्ग तज के तुम सङ्ग से हूँ आश्चर्य आत्म सुख लीन अनङ्ग से हूँ ॥88
कहीं-कहीं कोमलकान्त पदावली अत्यन्त रमणीय रूप में उपस्थित होकर अनुप्रास का सौन्दर्य अपनाये हुए हैं -
परपदं ह्यपदं विपदास्पदम्, निजपदं निपदं च निरापदम् । इति जगाद जनाब्ध रविर्भवान्, ह्यनुभवन स्वभवान भववैभवान् ॥89