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________________ 227 पतित पत्रक -पादप राजितं, प्रतिवनं रवि-पादप-राजितम् । मुनि मनो नु ततोस्त्वपराजितं नमति वैप तक स्वपराजितम् ॥4 प्रथम पंक्ति "पादपराजित" विशेषण पत्र-फूलरहित वृक्ष के लिये है। किन्तु द्वितीय पंक्ति में सूर्य की तेजस्विता के लिए प्रतीक स्वरूप पादपराजितम् का प्रयोग किया गया है। सूर्य के प्रचण्ड ताप में भी मुनियों का मन पराजित नहीं होता अपितु वे अपनी जितेन्द्रियता के कारण राजित (सुशोभित) होते हैं । इस प्रकार स्वपराजितम् विशेषण के द्वारा स्व और पर को जोड़ने का भाव स्पष्ट होता है । "परिषहय शतकम्" आचार्य श्री की यमकालङ्कार प्रधान रचना है। इसी प्रकार अर्थालङ्कारों का बाहुल्य भी प्रस्तुत काव्य में दृष्टिगोचर होता है - परीषह जय शतकम् में उपमा अलङ्कार अनेक पद्यों में प्रस्तुत हुआ है, जिससे इस काव्य के सौन्दर्य में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है । प्रस्तुत पद्य उपमा से परिपूर्ण है - विमलरोचन भासुररोचना लिसितोत्पलभासुर रोचना ।" लाल कमल की आभा सी तनवाली हैं सुर वनिताएँ । नील कमल सम विलसित जिनके लोचन हैं सुख सुविधाएँ ॥ इसी प्रकार - यदि यमी तृषित सहसा गरेड वत्ररतीव शशी किल सागरे । यदि मुनि का मन कभी तृष्णा की ओर प्रेरित भी हो तो वे अन्तरात्मा में उसी प्रकार | अवगाहन करते हैं जिस प्रकार सिन्धु में चन्द्रमा विलीन हो सुख पाता है । सन्देह अलङ्कार भी कतिपय पद्यों में प्रयुक्त हुआ है । परिषह जय शतकम् में आचार्य श्री की दृष्टि काव्य-सौष्ठवोन्मुखी मालूम पड़ती है । सन्देह अलङ्कार का लक्षण काव्यप्रकाशकार के अनुसार अधोलिखित है - . स सन्देहहस्तु चेदोक्तो तदनुक्तौ च संशयः ।। सन्देह अलङ्कार में उपमेय और उपमान के साथ एकरूपता में एक सादृश्य मूलक संशय रहता है, जो एक भेदोक्ति अर्थात् उपमेय उपमान में भिन्नता के कथन और भेदानुक्ति अर्थात् इन दोनों में भिन्नता के अकथन दोनों प्रकार से सम्भव है । आशय यह कि प्रकृत वस्तुओं में अन्य वस्तु सम्बन्धी सन्देह की कल्पना से सन्देह अलङ्कार होता है । परिषहजय शतकम् का एक पद्य उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत है - तृण शिला कलके च सकारण भुवि तरीययौन्ति कारणम् 178 भू पर अथवा कठिन शिला पर काष्ठ फलक पर या तृण पे शयन रात में अधिक याम कि दिन में नहिं संयम तन पे ॥ अर्थान्तरन्यास अलङ्कार - सामान्यं वा विशेषो वा तदन्येन समर्थ्यते । यतु सोऽर्थान्तरन्यासः साधर्म्यंतरेण वा ॥" जिसे साधर्म्य और वैधर्म्य की दृष्टि से सामान्य का विशेष द्वारा और विशेष का सामान्य द्वारा समर्थन कहते हैं, वह अर्थान्तरन्यास अलङ्कार है ।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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