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| 226 ज्यों वात जो सरित् ऊपर हो चलेगा ।
हो शीत, शीघ्र सबके मन को हरेगा268 ॥ रूपक अलङ्कार भी भावनाशतकम् के विभिन्न श्लोकों में उपलब्ध होता है । रूपक का लक्षण है - तद्रूपकमभेदो यः उपमानोपमेययो269 अर्थात् उपमेय और उपमान का जो अभेद अभेदारोप या काल्पनिक अभेद है वह रूपक अलङ्कार कहलाता है । उदाहरण
___ "ज्ञानरूपी करे दीपोऽमनोऽचलो यतेऽस्त्यमय
सन्तरूपी हरेऽपापो जिनोऽवलोक्यते स्पयम्'।।० इस प्रकार भावना शतकम् में उक्त अलङ्कारों के प्रयोग से अर्थ सौन्दर्य में भी श्री वद्धि हुई है ।
३. श्रमण शतकम् : आचार्य श्री ने यमक अलंकार का प्रचुर प्रयोग किया है । श्रमण शतकम् में यमक अलङ्कार का बाहुल्य है।
श्री वर्धमान माऽयं आलकय्य नत-सुराप्तमानमाय ।
विधीश्चामानमाय-मचिरेण कलयामानमाय ॥1 प्रस्तुत पद्य में "मानमाय" पद्य की आवृत्ति प्रत्येक पद्य के अन्त में हुई है और प्रत्येक पाद में भिन्न अर्थ की प्रतीती होती है अत- इसमें सर्वपादान्त यमक अलंकार प्रयुक्त हुआ है। श्रमणशतक के प्रायः सभी पद्यों में यमक अलङ्कार का प्रयोग हुआ है ।
४. सुनीति शतकम्। सुनीति शतकम् में अनुप्रास, उपमा और यमक अलङ्कारों के प्रयोग से सौन्दर्य उपस्थित हुआ है । अनुप्रास एवं उपमा का संयुक्त प्रयोग द्रष्टव्य है -
अर्थेन युक्तं नर जीवनं न, चार्थे नियुक्तं मुनिजीवनं चेत् ।
खपुष्पशीलं च भवीक्षुपुष्पवदेव बन्धं न विदुर्विमाना ॥2
धनहीन गृहस्थ और धन में अनुरक्त श्रमण का जीवन ईखपुष्प एवं आकाश पुष्प के समान निरर्थक है । अतः उपमा अलङ्कार का प्रयोग है। अन्तिम पंक्ति में "व" वर्ण की आवृत्ति होने से अनुप्रास अलङ्कार का आगमन भी हुआ है । इस ग्रन्थ में अनुप्रास की योजना सफलता के साथ प्रस्तुत हुई है।
५. परिषह जय शतकम् यह रचना "ज्ञानोदय' शीर्षक से प्रकाशित है । परिषह जय शतकम् ग्रन्थ में अनेक अलङ्कारों का प्रयोग हुआ है । अनुप्रास अलङ्कार की छटा "परिषह जय शतकम्" में यत्रतत्र परिलक्षित होती है । "परिषह जय शतकम्" के प्रस्तुत पद्य में अनुप्रास की हृदयहारी छटा दर्शनीय है -
मदन मार्दव मानस हारिणी, ललित-लोलक-लोचन हारिणी । मुदित-मञ्ज-मतङ्ग-विहारिणी, यदि दृशे किमु सा स्वविहारिणी ॥73
यमक अलङ्कार भी इस काव्य में चमत्कारिक रूप में विद्यमान है। प्रस्तुत शतक में यमक अलङ्कार से ओत-प्रोत अनेक पद्य उपलब्ध हैं - प्रस्तुत पद्य उदाहरण स्वरूप प्ररूपित है -