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________________ 225 इसी आधार पर कहा जा सकता है कि निरञ्जन शतकम् में अक्षर (अविनाशी) निरञ्जनपरमात्मा की स्तुति ही आचार्य श्री ने आध्यात्मिक एवं भक्तिपूरित हृदय से प्रस्तुत की है। उपर्युक्त वक्तव्य में अलङ्कारों का स्वरूप, लक्षण तथा निरञ्जन-शतक में उनकी यथा स्थान उपस्थित पर प्रकाश डाला है । प्रस्तुत विश्लेषण से यह तथ्य प्रकट हो जाता है कि निरञ्जन शतक एक भावप्रधान तथा अलङ्कारिक सौन्दर्य की परिधि में आबद्ध शतक-काव्य कृति है । इस ग्रन्थ में शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार का सम्यक् समन्वय मिलता है । कोमलकान्त शब्दावली में समानता है किन्तु अर्थों में गम्भीरता और परस्पर भिन्नता देखी जा सकती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि निरञ्जन शतकम् के 100 पद्य जिनमें अकलंक और सिद्ध परमात्मा की स्तुति की गई है, आलंकारिक सौन्दर्य से अनुप्राणित है । २. भावनाशतकम् भावनाशतकम् में प्रत्येक भावना के अन्त में एक मुरजबन्ध का प्रयोग किया गया है । मुरजबध चित्रालङ्कार का एक अङ्ग है । मुरजबन्ध कई प्रकार का होता है, किन्तु इस काव्य में सामान्य मुरजबन्ध लिखा गया है । __ सर्वप्रथम श्लोक के पूवार्ध को पंक्ति के आकार में लिखकर उत्तरार्थ को भी पंक्ति के आकार में उसके नीचे लिखें । इस अलङ्कार में प्रथम पंक्ति के प्रथम अक्षर को द्वितीय पंक्ति के द्वितीय अक्षर के साथ और द्वितीय पंक्ति के प्रथम अक्षर को प्रथम पंक्ति के द्वितीय अक्षर के साथ मिलाकर पढ़ना चाहिये । यही क्रम श्लोक के अन्तिम अक्षर तक जारी रहता है । भावनाशतकम् में मुरजबन्ध के 16 श्लोक हैं उदाहरण - दिव्यालोक प्रदानेन दर्शनशुद्धिभास्करः । नव्याव्यककदावाशस्पर्श कोऽशु भाकारः ॥4 मुरजाकृति भी देखिये265 दि व्या लो क प्रदा ने श द र्श न सिद्ध भा स्क र : भ व्या व्य क क दा वा श स्पर्स को शु शु भा क र भावनाशतकम् आचार्य श्री की प्रतिभा का सर्वोत्कृष्ट निदर्शन है । इसमें आद्योपान्त यमकालङ्कार विद्यमान है । एक पद्य उदाहरणार्थ प्रस्तुत है विराधनं न राधनं निदानमस्य केवलं नराधनं । ददाति सदाराधनं राधनं मुक्तिदाराधनं०।। इस कृति में अनुप्रास अलङ्कार का प्रयोग भी मिलता है। साधव इह समाहितं नमन्ति सतां समाधुता संमहितम्87 इस प्रकार भावनाशतकम् में शब्दालाङ्कारों की प्रधानता है । अर्थालङ्कारों में से उपमा और रूपक ही इस ग्रन्थ में दृष्टिगोचर होते हैं । उपमा अलङ्कार का बहुविध प्रयोग किया गया है । उदाहरण - अवनितल इव पावन प्रसङ्गाद् भवति शीतलः पावनः । श्रुतिमननात स्वपावन प्रदायिन्नुपयोगः पावनः ॥
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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