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________________ 222 · 44 "चर्याशययानिषद्या-सु वान्यतमास्तु शीतोर्भवेत्तद्व दागभानु काव्य के अन्त में संस्कृत भाषा में निबद्ध मङ्गलकामना अनुष्टुप् वृत्त में प्रस्तुत की गई है । उपर्युक्त काव्य में भावानुकूल छन्द योजना आचार्य श्री के गम्भीर चिन्तन की सफल या सजीव अभिव्यक्ति कही जा सकती है । भावों की बोधगम्यता और गौरवशालिता से ओतप्रोत छन्द इस काव्य में प्रयुक्त हैं । चैकदा भवादिति " ॥247 'अलङ्गारच्छटा I शब्द और अर्थ की शोभा को बढ़ाने के कारण तथा रसादि की प्रतीति के परिचायक शब्द और अर्थ के धर्म को "अलङ्कार" कहते हैं । अलङ्कार काव्य की श्रीवृद्धि के साधन हैं । जिस प्रकार कोई रमणीय हार आदि आभूषण धारण करने से अत्यन्त लावण्यमयीय प्रतीत होती है, इसी प्रकार कोई भी रचना अलङ्कारों के द्वारा अत्यन्त सुशोभित हो जाती हूँ । साहित्यशास्त्र में अलङ्कार का पृथक्-पृथक् विभाजन उपलब्ध होता है, शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार । १. निरञ्जन शतकम् उपर्युक्त दोनों प्रकार के अलङ्कार "निरञ्जनशतकम् " में समाविष्ट है, इसलिये ग्रन्थ में चारुता आ गई है । - अनुप्रास अलङ्कार का लक्षण विख्यात आचार्य मम्मट ने इस प्रकार किया है- वर्ण साम्यमनुप्रास:248 इस लक्षण के अनुसार स्वरों में असमानता रहने पर भी व्यजनों के सादृश्य को वर्ण साम्य मान लेते हैं । यह रस शाश्वतादि के अनुकूल होना अपेक्षित है । प्रस्तुत ग्रन्थ निरञ्जन शतकम् में अनुप्रास अलङ्कार प्रायः सर्वत्र ही प्रयुक्त हुआ है। निरञ्जनशतक में अचार्य श्री की उल्लेखनीय उपलब्धि यह कही जा सकती है कि उन्होंने संस्कृत में तुकान्त पद्यों का प्रयोग किया है । इस प्रकार उनके गूढ़ भाषा ज्ञान और अगाध साहित्य सर्जना करने की क्षमता का भी अनुमान लगाया जा सकता है । अनुप्रास अलङ्कार का एक उदाहरण प्रस्तुत है - गतिगतिं: सगतिश्च स दगति मर्म तपो नलदीप्ति सद्रा गति । भव भवोप्य भवो भव हानये निज भवो गतमोहमहानये ॥ इसी का हिन्दी पद्यानुवाद भी अनुप्रास से ओत-प्रोत है । चारों गति मिट गयी, तुम ईश शम्भू, हो ज्ञान पूर निजगम्य, अन्तः ध्यानाग्नि दीप्त मम हो, तुम वात संसार नष्ट मम ये, तुम हाथ हो स्वयम्भू । हो तो, तो ॥ 249 श्लेष अलङ्कार 250 का भी अधिकाधिक प्रयोग निरञ्जनशतक में मिलता है । प्रत्येक पद्य में श्लेष का प्रयोग आचार्य श्री के पाण्डित्य और कल्पनाशक्ति की द्योतक है। श्लेष का लक्षण काव्य प्रकाश में इस प्रकार है - शब्द
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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