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________________ - 223 वाच्यभेदेन भिन्ना युगपद्भाषणस्पृशः । श्लिष्यन्ति शब्दाः शेषोऽसावक्षरादिभिरष्टिधा ॥1 अर्थात् परस्पर भिन्न-भिन्न अर्थ रखने वाले भी शब्दों में एकरूप्य अभेद की प्रतीति ही श्लेष है । प्रस्तुत लक्षण को निम्न पद्य पर छटा सकते हैं - मम मतिः क्षणिका ह्यपि चिन्मयी, तद्धदिता न चितो यदतन्मयी । ननु न वीचिततिः सरसा विना, भवतु वा न सरश्च तया विना ।। मेरी भली विकृति पे, मति चेतना है चैतन्य से उदित है, जिनदेशना है। कललोल केबिन सरोवर तो मिलेगा कल्लोल वो बिन सरोवर क्या मिलेगा ॥252 यमक अलङ्कार और श्लेष अलङ्कार का मणिकाञ्चन समन्वय निरञ्जन शतक में अनेकों स्थलों पर हुआ है । यमक का सुप्रसिद्ध लक्षण यह है - सत्यर्थभिन्नानां वर्णानां सा पुनः श्रुतिः, यमकम् । प्रस्तुत लक्षण के अनुसार जिसमें अर्थ के होने पर भिन्न -भिन्न अर्थ वाले वर्ण अथवा वर्ण समूह की पूर्वक्रमानुसार आवृत्ति हुआ करती है, उसे यमक अलंकार कहते हैं - यमक का स्वरूप प्रस्तुत पद्य में उपस्थित हुआ है - . समयसारत ईश नसारतः सविकलो विषयाज्जऽसारतः । जगति मक्षिक व सदा हितं, ममलं भ्रमरेण सदाहत ॥ हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत है - स्वादी तुम्हीं, समयसार स्वसम्पदा के आदी बुधी सम नहीं जड़ सम्पदा के । औचित्य है भ्रमर जीवन उच्च जीता, मक्खी समा मल न पुष्प पराग पीता । सदाहत (ईश्वर) सदा एवं आहतम् अर्थात् भक्षण करना । “साधर्म्यमुपमा भेदे55 आशय यह कि उपमेय और उपमान का, उनमें भेद होने पर भी, परस्पर साधारण धर्म से सम्बद्ध रहना उपमा है । हिन्दी के किसी कवि का मन्तव्य है । उपमा अलङ्कार आचार्य श्री के काव्य ग्रन्थों में सुनियोजित रूप में समन्वित है। प्रस्तुत शतक में भी उपमा के विभिन्न स्थल मनोहर बन पड़े हैं - शिरसि भाति तथा लमलेतरा कवततिः कुटिला धवले हराः। . मलय चन्दनशाखिनि विश्रुते, विषधराश्च यथा जिन विश्रुतेः ॥ हिन्दी में भावार्थ प्रस्तुत है - काले, घने, कुटिल चिकने पेश प्यारे ऐसे मुझे दिख रहे, शिर के तुम्हारे । जैसे कहीं मलय चन्दन वृक्ष से हो कृष्ण नाग लिपटे अयि दिव्य देही ।। प्रस्तुत पद्य की अन्तिम पंक्ति उत्प्रेक्षा अलङ्कार का आभास होने लगता है - सम्भावनमथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य समेन यत् प्रकृत (उपमेय) की उसके समान अपकृत (उपमान) के साथ तदात्म्य सम्भावना करना उत्प्रेक्षालङ्कार है । इस काव्य में उत्प्रेक्षा अलङ्कार की छटा यत्र-तत्र बिखरी हुई शोभायमान हो रही हैअनुप्रास मिश्रित उत्प्रेक्षालङ्कार का उदाहरण द्रष्टव्य है -
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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