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________________ 219 साधुओं को अपार पीड़ाओं का सामना करना पड़ता है । अनन्त वेदनाओं के सहते | हुए शरीर की क्षीणता (कृशता) की ओर भी ध्यान नहीं देते । यहाँ उनकी स्थिति पर सहृदय की करुणा प्रस्फुटित होती है । अत: करुणा रस इस पद्य में विद्यमान है यदि तृणं पदयोश्च निरन्तरं तदित लाति गतो मुनिरन्तरम् । तदृदितं व्यसनं सहते जसा, हमपिऽसच्चसहे मति तेजसा । हिन्दी पद्य भी परिलक्षित किया जा सकता है - तृण कण्टक पद में वह पीड़ा सतत दे रहे दुःख कर है गति में अंन्तर तभी आ रहा रुक-रुक चलते मुनिवर हैं। उस दुस्सह वेदन को सहते-सहते रहते शान्त सदा उसी भाँति मैं सहूँ परीषह शक्ति मिले, शिव शान्ति सुधा 128 आचार्य जी अभिव्यक्ति की हैं कि असभ्य निर्दयी और पापी जनों से त्रस्त किये। गये और गालियाँ आदि मिलने पर भी साधु उन वचनों से प्रभावित नहीं होते, कठोर वचनों का उल्लेख ग्रन्थ में रौद्र रस का आभास कराता है - कटक-कर्कश कर्णशुभेतरं प्रकलयन् स इहा सुलभेतरम् इस प्रकार उपरोक्त विवेचन करने के पश्चात् कहा जा सकता है कि "परीषह जय शतकम्" शान्त रस सागर है । इसमें करुणा, रौद्र, भयानक, वीभत्स आदि रसों की स्थिति नगण्य है । भाव यह कि परीषहजय शतकम् शान्त रस से परिपूर्ण शतकम् काव्य है । १. निरञ्जन शतकम् इस काव्य के पद तुकान्त हैं । संस्कृत पद्य के नीचे अन्वय देकर तथा मध्य-मध्य में शब्दों के पर्यायवाची शब्द लिखकर भाषा को सुबोध बनाया है । इससे अल्पबुद्धि जीवी भी स्तुति-रस का पान कर सकता है। इस प्रकार कह सकते हैं आचार्य जी में संस्कृत साहित्य का पाण्डित्य भी विद्यमान है और जन सामान्य के हित की दृष्टि भी। निरञ्जन शतक द्रुतविलम्बित छन्द में निबद्ध कृति है - इस छन्द का लक्षण इस प्रकार है - द्रुतविलम्बितमाह नभौ भरौ अर्थात् जिस छन्द के प्रत्येक चरण में क्रमशः नगण, दो भगण और रगण होते हैं । उसे विलम्बित छन्द कहते हैं - यह 12 अक्षरों का छन्द है और प्रति चौथे अक्षर के आगे या चौथे और आठवें अक्षरों के आगे यति होती है। यथा - चरण युग्ममिदं तव मानसः सनख मौलिक एव विमानसः । भृशमहं विचरामि हि हंसकः यदिह तत् तटके मुनि हंसकः । हिन्दी अनुवाद में आचार्य जी ने वसन्ततिलिका छन्द का प्रयोग किया है - इस छन्द का लक्षण है - ज्ञेयं वसन्ततिलकं तभजा जगो ग? अर्थात् इस छन्द में क्रमशः प्रति पाद में तगण, भगण, दो जगण और दो गुरु वर्ण होते हैं, यह 14 अक्षरों का छन्द है और अष्टम तथा षष्ठ अक्षरों के पश्चात् यति होती है । उदाहरण द्रष्टव्य है - "हे आप दीन-जन रक्षक, साधु बाने दावा प्रचण्ड-विधि कानन को जलाने
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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