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मुनितात्म निशान्तेन स्थितेन च निशेशेन निशान्तेन ।
विरवोऽपि निशान्ते नः सत्कवे कविता निशान्तेन ॥ हिन्दी अनुवाद -
बोले विहंगम, उषा मन को लुभाती शोभावती वह निशा शशि से दिखाती हो पूर्ण शान्तरस से कविता सुहाती
शुद्धात्म में मुनि रहे मुनिता सुहाती ॥" अर्थात् सत्काव्य को सुशोभित करने वाला मुख, तत्त्व "शान्तरस' ही है । मोक्ष की ओर से जाने वाली निर्मल दृष्टि आदि भावनाएँ शान्ति के सिन्धु में मानव को प्रविष्ट कराती हैं । अत: इनका विश्लेषण शान्तरस में ही आचार्यवर ने किया है । प्रवचन वत्सलता में वात्सल्य रस, संवेग में वीर रस का आभास अवश्य होता है, परन्तु इस कृति में प्रधानता शान्त रस की ही है।
३. श्रमण शतकम् मुनियों की जीवनचर्या पर आधारित श्रमणशतकम् पदे-पदे शान्तरस से ओत-प्रोत हैमुनियों के हृदय में प्रशम-भाव के आते ही कर्मों की श्रृंखला भग्न होने लगती है और मुमुक्षु साधक परम शान्ति का अनुभव करते हुए स्वयं में रममाण होकर स्थित रहता है -
यस्य हृदि समाजातः प्रशमभावः श्रमणो यथा जातः । दूरोऽस्तु निर्जरातः कदापि मा शुद्धात्मजातः ॥
हिन्दी अनुवाद -
सौभाग्य से श्रमणर जो कि बना हुआ है । सच्चा जिसे प्रशम भाव मिला हुआ है। छोड़े नहीं वह कभी उस निर्जरा को । जो नाशती जन्म-मत्यु तथा जरा को ॥220
४. सुनीतिशतकम् "सुनीति शतकम्" में सुन्दर नीतियों का विशद विश्लेषण "शान्तरस" के धरातल पर ही हुआ है । आचार्य श्री ने स्वयं समर्थन किया है कि "शान्तरस" के बिना कवि की कविता शोभायमान नहीं होती -
· बिनाऽत्र रागेण वधूललाटे विनोद्यमेनापि न भातु देशः ।
दृष्ट्या बिना सच्च मुनेर्न वृत्तं रसेन शान्तेन कवेर्न वृत्तम् ।।21 इस प्रकार सुनीति शतकम् में सर्वत्र शान्तरस का विवेचन है ।
५. परीषहजय शतकम् - आचार्य प्रवर विद्यासागर जी का यह शतक ग्रन्थ शान्तरस से ओत-प्रोत है । इस काव्य के अधिकांश पद्य आध्यात्मिक भावों को अभिव्यक्त करते हैं, किन्तु उनमें नीरसता का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ा अपितु सरसता और चित्त की तन्मयता परिव्याप्त है । प्रस्तुत पद्य द्रष्टव्य है -