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216 हिन्दी अनुवाद :
हे शुद्ध बुद्ध मुनि पालक बोधधारी है कौन सक्षम कहे महिमा तुम्हारी ऐसा स्वयं कह रही तुम भारती है
शास्त्रज्ञ पूज्य गणनायक भी व्रती है ।16 जिनदेव की लोकोत्तर तेजस्विता, दिव्य व्यक्तित्व के वर्णन में नक्षत्र, आकाश भानु आदि का अस्तित्व भी मलिन बना दिया गया है, इसलिए अद्भुत रस की झलक इस पद्य में आ गयी है।
सति तिरस्कृत भास्कर लोहिते, महसिते जिन भुविः सकलोहिते । अणुरिवाज विभो ! किम देवन वियति मे प्रतिभाति सदैव न ॥ हिन्दी अनुवाद -
नक्षत्र है गगन के इक कोने में ज्यों, आकाश है दिख रहा तुम बोध में त्यों । ऐसी अलौकिक विभा तुम ज्ञान की है
मन्दातिमन्द पड़ती यति, भानु की है ॥17 आचार्य विद्यासागर जी ने अपने इष्ट की शारीरिक लालिमा का सौन्दर्य अभिव्यञ्जित किया है । वहाँ श्रृंगार रस का आभास होने लगता है । परन्तु इसे संयमित श्रृंगार ही कहा जा सकता है - क्योंकि यह श्रृंगार किसी कामुक के प्रति अभिप्राय नहीं रखता बल्कि किसी महापुरुष के शारीरिक लावण्य का प्रतीक है - इसमें अन्तर्मन की पवित्रता से संयुक्त रति स्थायी भाव सहृदयों के मन में उबद्ध होने लगता है - उदाहरण द्रष्टव्य है -
तवललाट तले ललिते हन्नये ! स्थित कवखलिमित्थमहं ह्य मे । सरसि चोल्लसिते कमलेऽमले, सविनयं स्थितिरिष्ट सतामलेः ॥ हिन्दी अनुवाद -
ऐसी मुझे दिख रही तुम भाल पे है जो बाल की लटकती लट, गाल पे है तालाब में कमल पे अलि गा रहा हो
सङ्गीत ही गुण-गुणाकर गा रहा हो18 सरोवर में खिले कमल पर भौरें का गुञ्जार करना सङ्गीत का सा आनन्द उत्पन्न करता है, जिनदेव के ललाम भाल पर काले बालों की लटें गालों तक बिखरी हुई सुशोभित हो | रही है । इस प्रकार शृंगार रस का कारण विद्यमान है और वह घटित भी हो जाता है -
आध्यात्मिक के भाव से अनुप्राणित निरञ्जन शतक शान्तरस प्रधान कृति है, इसमें अन्य रसों की स्थिति नगण्य है ।
२. भावना शतकम् __ भावना शतकम् में आध्यात्मिक और पाण्डित्य का समग्र विवेचन "शान्तरस" में विद्यमान है - आचार्य श्री की शान्तरस विषयक धारणा अधोलिखित पद्य से स्पष्ट हो जाती है -