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- 215इसमें दीर्घ समासपद होने से ओजगुण की झलक मिलती है ।
प्रसाद गुण महाकवि ज्ञानसागर जी द्वारा प्रणीत काव्यों में प्रसाद गुण विविध सर्गों में प्राप्त होता | है P०° उनके एक ग्रन्थ से अवतरित एक पद्य उदाहरणार्थ प्ररूपित है -
जितेन्द्रिव्यो महानेष स्वदारेष्वस्ति तोषवान् ।
राजनिरीक्ष्य ताभित्थं गृहच्छिद्रं परीक्ष्यताम् ॥310 | यह पद्य सुदर्शन को मृत्युदण्ड से मुक्त करने के लिए आकाशवाणी के रूप में उपस्थित
है । इसमें प्रसाद गुण है।
वाग्वेदग्ध - वाग्वैदग्ध का तात्पर्य है - वाणी को विद्वतापूर्ण वक्रोक्ति अलङ्कार में भी अभिव्यजित होती है और लक्षणा एवं व्यञ्जना वृत्तियों में भी कभी-कभी वाणी की शालीनता देखी जाती है । आचार्य श्री के काव्यों में जयोदय", सुदर्शनोदय: श्री समुद्रदत्त चरित्र, दयोदय चम्पू ऐसे ग्रन्थ हैं जिनमें पात्रों ने वाक्चातुर्य के द्वारा प्रभावित किया है। जहाँ दयोदय के तृतीय सर्ग से एक पद्य उदाहरणार्थ द्रष्टव्य है - जयकुमार के समक्ष दूत सुलोचना के सौन्दर्य का वर्णन करता है -
असौ कुमुद बन्धुश्चेद्वितैषी सुदृशोऽग्रतः
मुखमेव सरवी कृत्य बिन्दुमित्यत्र गच्छतु 115 अर्थात् यह कुमुद बन्धु (चन्द्रमा) यदि सुलोचना के सम्मुख अपना भला चाहता है तो यहाँ इस के मुख को मित्र बनाकर उससे कुछ भी बिन्दु (सार भूत कान्ति) प्राप्त कर ले ।
इस प्रकार आचार्य श्री ने अपने काव्यों में वाक्चातुर्य को प्रयुक्त करके अपने काव्य नैपुण्य और गहन शब्द भण्डार की प्रतीति करा दी है।
आचार्य विद्यासागरजी की रचनाओं का साहित्यिक एवं शैलीगत अध्ययन
आचार्य विद्यासागर जी की रचनाओं में संस्कृति, दर्शन अध्यात्म के साथ ही काव्य के विविध तत्वों का समन्वय है - उनके द्वारा प्रणीत शतक ग्रन्थों का साहित्यिक एवं शैलीगत विवेचन निम्नाङ्कित है -
रस
१. निरञ्जन शतकम् निरञ्जन शतकम् आध्यात्म की पृष्ठभूमि पर निर्मित परमात्म की अनुपम भक्ति पूरित रचना है । तद्नुरूप सांसारिक प्रपञ्चों से उदासीन और विषयों के प्रति निर्लिप्त भावना इस ग्रन्थ के अध्ययन अनुशीलन से जाग्रत होती है । परमात्मा के प्रति सदैव शाश्वत् रूप में विद्यमान रहने और उसके प्रति श्रद्धा रखने की शिक्षा भी निरञ्जन शतकम् की अप्रतिम विशेषता है । इन सब तथ्यों के विवेचन से यह प्रतिपादित हो जाता है कि इस ग्रन्थ में शान्त रस की अविरल धारा प्रवाहित होती है । आशय यह निकलता है - निरञ्जन शतकम् में शान्तरस की प्रधानता है, किन्तु तन्त्र अन्य रसों की अवस्थिति भी दर्शनीय है । शान्त रस का उदाहरण प्रस्तुत है -
"निगदितुं महिमा ननु पार्यते, सुगत केन मनो मुनिपार्य ! ते । वदति विश्वनुता भुवि शारदा, गणधराः अपि तत्र विशारदाः ॥