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________________ 214 इस प्रकार वैदर्भी शैली आचार्य श्री के समस्त काव्यों में विभिन्न रूपों में निदर्शित है । उक्त सभी उदाहरणों में माधुर्य गुण की उपस्थिति, अत्यल्प समास, प्रवाह, सरलता आलङ्कारिकता सभी वैदर्भी शैली की पोषक है । पाञ्चाली शैली पाञ्चाली शैली के अत्यल्प पद्य आचार्य श्री के काव्यों में मिलते हैं । वीरोदय में भगवान् महावीर के जन्म के समय उनके अभिषेक हेतु आये हुए देवगणों का चित्रण पाञ्चाली शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है - अरविन्दधिया दधद्रविं पुनरे रावण उष्णसच्छविम । घृतहस्ततयात्तमुत्य जननयद्धास्यम हो सुरव्रजेम् । षकर्कट नक्रनिर्णये वियदब्धावुत्त तारकाचये । कुवलयकारान्वये विधुं विर्बथाः कौस्तुममित्थ मभ्युधुः ॥" यहाँ प्रवाहशीलता और दीर्घ समासपद हैं अत: पांचाली है । गौड़ी शैली का अभाव ही है क्योंकि कवि का दृष्टिकोण शब्दाडम्बर प्रदर्शन का नहीं रहा है जहाँ भी समासों के दीर्घ पद है वहाँ प्रवाह शीलता है ऐसे स्थल गौड़ी शैली को उपस्थित नहीं करते बल्कि उनमें वैदर्भी मिश्रित पाञ्चाली शैली है। गुण __ आचार्य श्री के ग्रन्थों का अनुशीलन करने पर ज्ञात होता है कि उनकी काव्य धारा माधुर्य गुण की उन्मुख हुई है । आपकी रचनाओं में कोमलकान्त पदावली तथा शान्त के साथ ही शृंगार, करुण रसों की अत्यधिक प्रस्तुति माधुर्यगुण के अस्तित्व का बोध कराती है । जयोदय, वीरोदय", श्रीसमुद्रदत्त चरित्र, सुदर्शनोदय, दयोदय चम्पूस, सम्यक्त्वसार शतकम्205 इत्यादि ग्रन्थों में माधुर्य गुण के सहस्त्र उदाहरण उपलब्ध होते । यहाँ माधुर्य गुण का एक उदाहरण प्रस्तुत है - इसमें जयकुमार और सुलोचना के (सहयोग से संयोग श्रृंगार) आलिङ्गन का वर्णन है - अधस्तना रम्भं निरूदभूतलः प्रयाति कूटेः पुरुहू तपत्तनम् । कुतः सरन्ध्रोऽवनिभृत्सुमानि तोऽथवा पुरोः पाद समन्वयो हासों । वृहन्नितम्वातिलकार्ड भृच्रािनिरन्तरोदारपयोधरा तरां4 ।। सविभ्रमापाण्डतयान्विता श्रिया विभाति भित्तिः सुभगास्यः मूर्भूतः 106 इसमें संयोग शृंगार एवं कोमलकान्त पदावली, लघु समास पदों के कारण माधुर्यगुण है। __ ओजगुण यह गुण भी महाकवि के ग्रन्थों में विशेष स्थलों पर निदर्शित है 7 ओजगुण की उपस्थिति अधोलिखित उदाहरण में दर्शनीय है - गतोनृपद्धार्यपिनिष्फलत्वमेवान्व भूत्केवल मात्मु सत्वः । पुनः प्रतिपातरिद्रं बुवाणः बभूव भद्रः करुणे कशाणः ।। भद्र मित्र ने राज दरबार में पुकार की परन्तु वहीं किसी ने उसका समर्थन नहीं किया जिससे वह प्रतिदिन सबेरे पुकारने लगता है । -
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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