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इस प्रकार उर्दू मिश्रित हिन्दी का प्रभाव कवि की भाषा में है । "जयोदय" महाकाव्य की भाषा प्रौढ़ मधुर एवं आलङ्कारिक 8 छटा से ओत-प्रोत है । वीरोदय, सुदर्शनोदयं, दयोदय, श्री समुद्रदत्त चरित्र, सम्यक्त्वसार शतक्म्, प्रभृति ग्रन्थों की भाषा प्रसङ्गानुकूल सरल, सरस, और सशक्त है। श्री समुद्रदत्त चरित्र में कहीं-कहीं भाषा शैथिल्य के दर्शन भी होते हैं । किन्तु यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि आचार्य श्री ने विषय वर्णन के अनुरूप एवं देश काल को दृष्टिगत करते हुए भाषा का प्रयोग किया है । उनकी भाषा में सुकुमारता के. साथ ही भयङ्करता भी प्रसङ्गानुकूल विद्यमान है । भाषा में मुहावरे और लोकोक्तियों की उपस्थिति भी यत्र-तत्र हुई है । यथा-नाम्बुधौ मकरतोऽरिता हिता' (जल में रहकर मगर से बैर)
वंशे नष्टे कुतो वंश-वाद्य स्यास्तु समुद्भवः । न रहे बांस न बजे बांसुरी । काल करे तो आज कर ... की पुष्टि भी की है 157 भाषा में प्रवाहशीलता है । किसी भी घटना विशेष को सुरम्य भाषा में आबद्ध करके प्रस्तुत करना महाकवि के शिल्पचातुर्य का प्रमाण है । सुदर्शनोदय में मिट्टी का पुतला गिर जाने से टूट जाने पर द्वारपाल के समक्ष दासी का.न नाटकीय विलाप भाव और भाषा के सजीव समन्वय का अङ्कन है - अरे राम रे ।
अहं हतानिर्मिर्मितं हता चापि राज्ञी हतावत कुत्रिम निषध
मया किंम विधेयं करो तूत सा साम्प्रतं चाखेवय द तु 188 भाषा में तुकान्तता, सङ्गीतात्मकता, आलंकारिकता एवं गाम्भीर्य भी विद्यमान है । दयोदय चम्पू में पद्य के अतिरिक्त गद्य शैली में भी भावानुकूल शब्दावली प्रयुक्त की गई है । आचार्य श्री ने गम्भीर एवं दार्शनिक विषयों का विवेचन भी सरल, बोधगम्य भाषा के द्वारा किया है । सम्यक्त्वसार शतकम्, प्रवचनसार, मुनिमनोरञ्जन शतकम् ग्रन्थ आध्यात्मिक विषयों पर आधारित होते हुए भी सरल, सरस, साहित्यिक संस्कृत भाषा में निबद्ध हुए हैं । यह कवि के विपुल शब्द भंडार ओर भाषा पर प्रकाम अधिकार होने की चरम् परिणिति है ।
शैली आचार्य श्री ने अपने सभी काव्यों का प्रणयन् वैदर्भी शैली में किया है । इस शैली में माधुर्यगुण के अभिव्यञ्जक शब्दों का बहुल्य होता है और दीर्घ समासों का अभाव होता हैं यत्र-तत्र स्वल्प समास भी मिलते हैं । यही शैली प्रधान रूप से प्रयुक्त है। गौड़ी शैली में ओजगुण के अभिव्यञ्जक वर्गों की पु प्रचुस्ता और लम्बे-लम्बे समासों की उपस्थिति या पाण्डित्य प्रदर्शन रहता है । पांचाली शैली में प्रसादगुण के अभिव्यंजक वर्ण होते हैं और पाँच-पाँच तथा छ:छः पदों के समास प्राप्त होते हैं । यह शैली वर्ण्य विषय को स्पष्ट करती है ।
वैदर्भी शैली — आचार्य श्री के समस्त काव्यों में वैदर्भी शैली की प्रधानता है । यह शैली उपदेशात्मक व्याख्यात्मक, विवेनात्मक, संवादात्मय (प्रश्नोत्तर) इत्यादि रूपों में परिलक्षित की जा सकती है।