________________
211
पंक्ति तैयार बनती है और छोड़े गये अक्षरों से चित्र की द्वितीय पंक्ति तैयार होती है । इस सम्बन्ध में श्लोक के दोनों पंक्तियों के सम अक्षर एक ही होते हैं ।
यानबन्ध . (वीरोदय 22/38)
न मनोधमि देवेभ्योऽर्हद्भयः संव्रजतां सदा ।
दासतां जनमात्रस्य भवेदप्पद्य नो मनः ॥ श्लोक को वितान और मण्डप में लिखने के पश्चात् स्तम्भों और मञ्च में लिखा जाता है । उक्त श्लोक के प्रथम दो चरण मण्डप और वितान में है तथा तृतीय चरण दाहिने स्तम्भ से मञ्च की ओर और चतुर्थ चरण मञ्च से होता हुआ बांये स्तम्भ में लिखा गया है ।
पद्यबन्ध
(वीरोदय, 22/39)
"विनयेन मानहीन विनष्टैनः पुनरस्तु नः ।
मुनये नमनस्थानं ज्ञानध्यानधनं मनः ॥" इस कमल में पंखुड़ियाँ और पराग विद्यमान हैं इसमें एक अक्षर पराग के रूप में और शेष अक्षर पंखुड़ियों के रूप में आते हैं । प्रस्तुत उदाहरण में "न" अक्षर पराग के रूप में और शेष सभी पंखुड़ियों के रूप में आये हैं । इन्हें अनुलोभ-प्रतिलोभ विधि अर्थात् पंखुड़ी से पराग में और पराग से पंखुड़ी में पढ़ा जाता है ।
तालवृन्त बन्ध (वीरोइय 22/40) ' "सन्तः सदा समा भान्ति मर्जूमति नुतिप्रियाः ।
अयि त्वयि महावीर, स्वीता कुरु मर्जूमयि ॥" इस बन्ध में श्लोक को क्रमशः दण्ड में रखते हुए दण्ड एवं तालवृन्त को सन्धि में ले जाते हैं उसके बाद तालवृन्त में घुमाया जाता है ।
कलशबन्ध परमागमलम्बेन नवेन सन्नयं लप । यन्न सन्नरमङ्गं मां नयेदितिन मे मतिः ॥
(सुदर्शनोदय 9/79) इस बन्ध में कलश की आधार शिला से श्लोक को प्रारम्भ करते हुए कलश के बीच में दांयी और पढ़ते हुए शीर्ष स्थान तक पहुंचते हैं। पुनः बीच के बांयी ओर से पढ़कर पुनः आधार शिला पर पहुंचकर फिर बीच में और तत्पश्चात् कलश के बाहरी भाग में पढ़ा जाता है।
भाषा एवं शैली आचार्य श्री ज्ञानसागर के काव्यों में साहित्यक लौकिक संस्कृत भाषा प्रयुक्त हुई है। भाषा में आलङ्कारिकता भी है । संस्कृत के साथ ही उर्दू एवं फारसी भाषा के शब्दों का । प्रयोग भी हुआ है । शब्दों के सन्दर्भ दीजिए -