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________________ 210 चित्रालङ्कार तच्चित्रं यत्र वर्णानां खङ्गाद्याकृतिहेतुता । __ आचार्य श्री के काव्यों का परिशीलन करने से ज्ञान हुआ है कि अधोलिखित छः चित्रबन्धों का उनमें प्रयोग किया गया है (अ) चक्रबन्ध (ब) गोमूत्रिकाबन्ध (स) यानबन्ध (द) पद्मबन्ध (इ) तालवृन्त बन्ध (फ) कलशबन्ध । (अ) चक्रबन्ध इसका प्रयोग "जयोदय' महाकाव्य के प्रत्येक सर्ग उपान्त्य पद्य में हुआ है । इस प्रकार 28 चक्रबन्ध बनाये गये हैं जिनके माध्यम से कथानक की प्रमुख घटनाओं का संकेत मिलता है । यहाँ केवल चक्र बन्धों के क्रमानुसार नाम ही निदर्शित किये गये हैं । तथा एक चक्रबन्ध को सचित्र समझना भी उपयुक्त है - जयमहीपतेःसाधुसदुपारित चक्रबन्ध: नागपतिलम्ब चक्रबन्धा' स्वयंवर सोमपुत्रागम, स्वयंवर मति', स्वयंवरारम्भ०, नृपपरिचय वरमालोप, समरसंचय, अर्तपराभव, भरतलम्बन,करग्रहारम्भ,सुदृश:कथन,करोपलम्बन', जयोगग्डागत', सरिदवलम्ब', निशासमागम', सोमरसपान', सुरतवासना, विकृतभात नभशा", शान्तिसिन्धुस्तव, भरतवन्दन", पुरमाप जय"6, मिथ:प्रवर्तनम्”, दम्पति विभवा, गजपुरनेतुस्तीर्थ विहरणम" जयसद्भावना180, निर्गमनविध's], जयकुपतये सद्धर्म देशना 2, एवं तपः परिणाम चक्रबन्ध सरिदवलम्ब चक्रबन्ध "सकलमपि कलत्रमनुमानकम् लिखित ममूक्तं ललितमतिबलम् । दधत्स्वपदवलमुचितार्थभवम, बहु सञ्चरितदमवलं भुवः ॥184 इस चक्रबन्ध के अरों में विद्यमान प्रथम अक्षरों को क्रमशः पढ़ने से सरिदवलम्ब" शब्द बनता है । इस सर्ग में कवि ने जयकुमार के नदी विहार का चित्रण किया है । जिसका सङ्केत भी इसमें है। उक्त सभी चित्र बन्धों में पाण्डित्य प्रदर्शन और सर्गानुसार कथा का संकेत प्राप्त है। "वीरोदय" महाकाव्य में कवि ने गौमूत्रिका बन्ध, यानबन्ध, पद्मबन्ध एवं तालवृन्तबन्ध नामक चार चित्रालंकारों को प्रयुक्त किया है । इनके उदाहरण क्रमानुसार प्रस्तुत हैं - गौमूत्रिकाबन्ध (वीरोदय 22/37) रमयन् गमयत्वेष वाङ्मये समयं मनः । न मनागनयं द्वेष धाम वा समयं जनः ॥ इसमें श्लोक की प्रथम पंक्ति के पहले, तीसरे, पांचवें, सातवें, नवें, आदि विषम अक्षरों को चित्र की प्रथम पंक्ति में तथा श्लोक की द्वितीय पंक्ति के पहले, तीसरे आदि विषम अक्षरों को चित्र की तीसरी पंक्ति में रखा जाता है और श्लोक की दोनों पंक्तियों के बीच के दूसरे, चौथे, छठे, आठवें आदि सम अक्षरों को क्रमशः द्वितीय पंक्ति में रखा जाता है। आशय यह कि श्लोक के जिन अक्षरों को लिया जाता है उनसे चित्र की प्रथम और तृतीय
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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