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________________ 209 विरोध न होने पर भी ऐसा वर्णन किया जाए कि विरोध की प्रतीति होने लगे, वह विरोधभास कहलाता है । जयोदय'', सुदर्शनोदय'32, और दयोदय चम्पू33, में विरोधाभास अलङ्कार से ओतप्रोत पद्य दृष्टिगोचर होते हैं । "सम्यक्त्वसार शतकम्" का यह पद्य विरोधाभास की प्रतीति कराता है - अदृश्यभावेन निजस्य जन्तुर्दृश्ये शरीरे निजवेदनन्तु । दधत्तदुद्योतन के ऽनुरज्य विरज्यतेऽन्यत्राधि या विभज्य 134 अर्थात् इस दृश्यमान (शरीर) में जो द्रष्टा (शरीरी आत्मा) है वह अदृश्य है । देहनिष्ठ व्यक्ति अनुकूल पदार्थों पर अनुरक्त होता है और प्रतिकूल के संयोग होने पर विरक्त होता है। यहाँ पर संसार में दृश्यमान शरीर है किन्तु वह द्रष्टा नहीं है एवं आध्यात्मिक के रूप में आत्मा ही यथार्थ द्रष्टा है परन्तु वह दृश्यमान नहीं है । इस प्रकार परस्पर विरोध प्रतीत होने से विरोधाभास अलङ्कार है । दृष्टान्त ३५ यह अलङ्कार जयोदय,वीरोदय'3, सुदर्शनोदय'38, दयोदय',सम्यक्तवसार शतकमा, श्रीसमुद्रदत्त चरित्रका इत्यादि ग्रन्थों में यन्त्र-तन्त्र परिलक्षित होता है । एक उदाहरण से इसे सुस्पष्ट किया जाना प्रसंगोचित्त है - सेवकस्य समुत्कर्षे कुतोऽनुत्कर्षतां सतः वसन्तस्य हि माहात्म्यं तरूणां या प्रफुल्लता ॥42 अर्थात् सेवक की उन्नति में स्वामी का अपमान नहीं होता क्योंकि वृक्षों पर पुष्पों का आगमन बसन्त की महत्ता को प्रकट करता है । यहाँ उपमेय वाक्य और उपमान वाक्य में उपमेय, उपमान, साधारण धर्म का बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव झलक रहा है । अतः दृष्टान्त अलंकार है। __ अर्थान्तरन्यास ४३ जयोदय, वीरोदय'45, श्री समुद्रदत्त चरित्र'46, सुदर्शनोदय, दयोदय इत्यादि काव्यों में अर्थान्तरन्यास अलङ्कार भी बहुतायत में है । वीरोदय का एक पद्य उदाहरणार्थ दर्शनीय है - एवं सुविज्ञान्तिमभीप्सुमेतां विज्ञाय विज्ञारुचिवेदने ताः । विज्ज्ञमुः साम्प्रतमत्र देण्यः मितो हि भूयादगदोऽपि सेव्यः ॥47 इस प्रकार प्रश्नोत्तर के समय ही विज्ञ देवियों ने माता को विश्राम करने की इच्छुक जानकर प्रश्न पूंछना बन्द कर दिया क्योंकि औषधि परिमित ही सेवनयोग्य होती है । इस पद्य में सामान्य कथन का समर्थन विशेष कथन से किया गया है, अतः अर्थान्तरन्यास की प्रस्तुति हुई है। ... इसके साथ ही आचार्य श्री के ग्रन्थों में मुख्यतया परिसंख्या 48, आतिशयोक्ति", भ्रान्तिमान'50, समासोक्ति", निदर्शना152, स्वभावोक्ति, वक्रोक्ति, आदि अलङ्कार सन्निविष्ट हुए हैं।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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