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रूपक :
रूपक यह अलङ्कार भी जयोदय 12, वीरोदय 13, सुदर्शनोदय 1 14, श्रीसमुद्रदत्त चरित्र 15, दयोदयचम्पू"", सम्यक्त्व शतकम् 17 इत्यादि के प्रत्येक सर्ग के पद्यों में प्रचुरता से प्रयुक्त हुआ है । यहाँ रूपक अलङ्कार के उदाहरण के रूप में एक पद्य द्रष्टव्य है।
स्वयंवर सभा में अर्ककीर्ति के पहुंचने पर महाराज अकम्पन उनकी अगवानी करते हुए कहते हैं - कि मेरे यौवन रूपी नदी की प्रथम तरंग मेरी पुत्री का यह स्वयंवर आपके नयन रूप मीनों का प्रसन्न करने वाला हो
यौवनादिव सरिद्वव दुर्भे- स्यात्स्वयंवर विधिर्दुहितु । श्रीमतांनयनमीनं युगस्यानन्द हेतु रियमत्र समस्या 11118
यहाँ यौवन, नयन उपमेय हैं जिनका क्रमशः नदी एवं मीन उपमानों के साथ अभद स्थापित किया गया है इसलिए रूपक अलङ्कार है ।
उत्प्रेक्षा :
सम्भावना स्यादुत्प्रेक्षा" प्रस्तुत अलङ्कार जयोदय 20, वीरोदय 21, सुदर्शनोदय 22, श्री समुद्रचरित्र 23 प्रभृति समस्त काव्यों के प्रत्येक सर्ग में विद्यमान है । दयोदय चम्पू124 में भी उत्प्रेक्षा अलङ्कार परिलक्षित होता है । यहाँ कवि की एक सुकुमार कल्पना अधोलिखित पद्य में समाहित है - कि विधाता ने तीनों लोकों का सार ग्रहण करके सुलोचना का निर्माण किया. इसलिए त्रिवली के ब्याज ( बहाने) से इसके उदर पर उसने तीन रेखाएँ कर दी हैंलंगूहत्रं सारं जगतां तथाऽसौ निर्मिसासीडिधिना विधात्रा । इतीव क्लृप्ता हत्रुदरेऽपि तेन तिस्त्रोऽपि रेवास्त्रिबलिच्छलेना 125
यहाँ उपमेय की उसके समान उपमान के साथ तादात्म्य संभावना है । अतः उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग है ।
अपन्हुति : प्रकृतं यन्निषध्यान्थत्साध्यते सा त्वपह्नुतिः 1126
कवि ने अपने काव्यों में अत्यन्त चमत्कार के समय अपन्हुति अलङ्कार की प्रतिष्ठा की है - जयोदय 27, वीरोदय 28, सुदर्शनोदय आदि में यह अलंकार अत्यधिक पद्यों में निदर्शित है | श्री समुद्रदत्त चरित्र के अधोलिखित पद्य में अपन्हुति की छटा अत्यन्त आकर्षक है जिसमें अपराजित छटा राजा ने ऋषि की पूजा की है इनके द्वारा समर्पित पुष्पांजलि के पास मण्डराते हुए भ्रमरों के बहाने वहाँ के समस्त पाप भी विलीन हो गये
समुद्रगमद्र भृगराम देशादुपात्त पापोन्वयसम्विलोपी ।
यस्मै किलाराम वरेण हर्षवारेण पुष्पाञ्जलिरर्पितोऽपि ॥1129
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इसमें कवि ने पुष्पों में विद्यमान भ्रमरों के मण्डराने का निषेध करके पाप समूह विलीन होने रूप अप्रस्तुत की स्थापना की है इसलिए अपह्नुति अलंकार है ।
विरोधाभास :
विरोधः सोऽविरोधेऽपि विरुद्धत्वेन यद्वचः 1130