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________________ | 2074 यहाँ दोनों पंक्तियाँ समान हैं किन्तु प्रयोजन में भिन्नता होने से लाटानुप्रास विद्यमान यमक: अर्थे सत्यर्थ भिन्नानां वर्णानां सा पुनः श्रुतिः । आचार्य ज्ञानसागर के काव्यों में यमक के भेद-प्रभेद एकदेशज आद्य यमक, मुखयमक, युग्मयमक पुच्छयमक", अन्त्ययमक के अनेक उदाहरण बिखरे हुए हैं। जयोदय के सर्ग 24 के पद्य 55. में एकदेशज आद्य यमक, वीरोदय के सर्ग19 का बारहवें पद्य में मुखयमक, जयोदय के सर्ग 18 का अडसठवें पद्य में युग्मयमक सुदर्शनोदय के सर्ग 3 के उनतालीसवें पद्य में युग्म यमक सुदर्शनोदय के ही सर्ग 3 के अड़तीसवें पद्य में एकदेशज अन्त्य यमक निदर्शित है। श्लेष : श्लिष्टैः पदैरनकार्थाभिधाने श्लेष इष्यते । जयोदय, वीरोदय, सुदर्शनोदय, श्रीसमुद्रदत्त चरित्र दयोदय आदि काव्यों में श्लेष अलंकार | के अनेक प्रयोग किये हैं । वीरोदय से एक उदाहरण प्रस्तुत है - एतस्य वे सौध पदानि पश्य सुपालय त्वं कथमूर्ध्वमस्या। इतीव वप्रः प्रहसत्यजस्त्रं शृङ्गाग्ररत्न प्रभुवद्रुचिन्वक् ॥ हे सुरालय (देवभवन/शराबघर) तुम इस कुण्डलपुर के सौध पदों (चूने के भवन/ मृतस्थान) को निश्चय से देखो, फिर तुम इनके ऊपर क्यों अवस्थित हो । मानों यही कहता हुआ और अपने शिखरों के अग्रभाग पर ये लगे हुआ रत्नों से उत्पन्न हो रही कान्ति रूप माला को धारण करने वाला उस नगर का कोट निरन्तर देव भवनों की हंसी कर रहा है। इस पद्य में आये सौध पदानि एवं सुरालय शब्दों में श्लेष से दो अर्थ व्याप्त है। जयोदय, श्रीसमुद्रदत्त चरित्र), सुदर्शनोदय, दयोदय'3 में अनेक स्थलों पर श्लेष अलंकार है । उपमा - उपमा अलङ्कार के प्रत्येक काव्य में शताधिक पद्य विद्यमान हैं। जयोदय, वीरोदय05, सुदर्शनोदय'06, दयोदय, श्रीसमुद्रदत्त चरित्र, के प्रत्येक सर्ग में इस अलंकार की छटा दृष्टिगोचर होती है। सम्यक्त्व शतक का एक उदाहरण प्ररूपित दुग्धे घृतस्येवतसदन्ययथात्वं संविद्धि सिद्धि प्रिय मोहदात्वं । इहात्मनः कर्मणि संस्थितस्य सूपायतः सति तथा त्वमस्य । . अर्थात् जिस प्रकार दुग्ध में विद्यमान घृत को मन्थन करके दुग्ध में विद्यमान से पृथक् करते हैं, उसी प्रकार कर्मलिप्त आत्मा को विशिष्ट उपायों के द्वारा कर्मयुक्त कर सकते हैं। यहाँ घृतयुक्त दुग्ध उपमेय एवं कर्मयुक्त आत्मा उपमान है । यथा, तथा वाचक शब्द हैं जिनसे उपमा की पुष्टि हुई है इस प्रकार ज्ञान, दर्शन के प्रसंग में भी कवि ने उपमा का प्रयोग करके इसके प्रति अपना अनुराग दिखाया है-पूर्णोपमा, मालोपमा", भी पदेपदे मिलते हैं।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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