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________________ - 2061 गीत प्राप्त होते हैं । इनके ग्रन्थों में प्राप्त गीतों की संख्या 37 है । जयोदय के विंशातितम सर्ग में चार गीत एवं षञ्चविंशतितम सर्ग में एक गीत विद्यमान है । दयोदय चम्पू के सप्तम लम्ब में एक गीत है । सुदर्शनोदय के पञ्चम सर्ग में आठ, षष्ठ सर्ग में नौ, सप्तम सर्ग में आठ एवं नवम सर्ग में तीन गीत अभिव्यञ्जित हैं । इन काव्यों में प्राप्त गीत, काफी होलिका राग' सारङ्ग राग, श्याम-कल्याण राग, दैशिक सौराष्ट्रीय राग और कव्वाली राग में निबद्ध हैं । सङ्गीत के क्षेत्र में उक्त प्रभाती, काफी होलिका, सारङ्ग,श्याम कल्याण रागों का अत्यधिक महत्त्व है । दैशिकराग भी सौराष्ट्र क्षेत्र का प्रमुख राग है जबकि रसिकराग ब्रजभूमि का बहुचर्चित और प्रधान राग है । कृष्ण की रास लीलाएँ इसी से सम्बद्ध है । उर्दू भाषाप्रिय समाज में कब्बाली मनोरंजन का प्रधान साधन है । कवि ने सङ्गीत शास्त्र के नियमानुसार ही इन रागों का समय निर्धारित किया है । उनके जयोदय, दयोदय में प्राप्त रागों की शैली का । आचार्य ज्ञान सागर महाराज के काव्यों में आलङ्कारिक छटाः बीसवीं शती के प्रतिष्ठित महाकवि ज्ञानसागर जी महाराज ने अपनी रचनाओं में अलङ्कारों का विवेचन किया है । आपके द्वारा प्रणीत काव्यों में प्रमुख रूप से अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अपह्नति, अतिशयोक्ति, तुल्ययोगिता, प्रतिवस्तूपमा, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास निदर्शना, स्वभावोक्ति, अप्रस्तुतप्रशंसा, असङ्गति, प्रतीप, दीपक, विभावना, एकावली आदि अलङ्कारों का साङ्गोपाङ्ग विवेचन हुआ है । तथापि आचार्य श्री को अनुप्रास, यमक, उपमा उत्प्रेक्षा, अपह्नति से विशेष लगाव रहा है । यहाँ अनेक ग्नन्थों में प्रयुक्त मुख्य-मुख्य अलङ्कारों का सोदाहरण निरूपण प्रस्तुत हैं - अनुप्रास : अनुप्रासः शब्दसाम्यं वैषम्येऽपि स्वरस्य यत् । आचार्य श्री ने जयोदय, वीरोदय, सुदर्शनोदय', श्री समुद्रदत्त चरित्र, दयोदय चम्पू , सम्यक्त्वसारदशतक और मुनि मनोरञ्जन शतक आदि काव्य-ग्रन्थों में अनुप्रास अलङ्कार का सर्वाङ्गपूर्ण निरूपण किया है - छेकानुप्रास, वृत्यनुप्रास अन्त्यानुप्रास, लाटानुप्रास की अभिव्यञ्जना भी यत्र-तत्र परिलक्षित होती है - यहाँ एक उदाहरण निदर्शित है - सतामहो सा सहजेन शुद्धिः, परोपकारे निरतैव बुद्धिः। उपद्धतोऽप्येष तरू रसालं, फलं श्रषत्यङ्गभुरो त्रिकालम् ।" यहाँ "स" वर्ण की तीन बार आवृत्ति है, तथा प्रथम पंक्ति के अन्तिम वर्ण की आवृत्ति द्वितीय पंक्ति के अन्तिम वर्ण में और तृतीय पंक्ति के अन्तिम वर्ण में की आवृत्ति चतुर्थ पंक्ति के अन्तिम वर्ष में हुई है । इसलिए प्रस्तुत पद्य में वृत्थानु प्रास और अन्त्यानुप्रास की छटा उपस्थित हुई है। लाटानुप्रास की छटा रमणीय है - मनोरमाधिपत्वेन ख्यायाय तरुणायते मनोरमाधिपत्वेन ख्यायाय तरुणायते ।” मनोरमा के प्रति रूप में विख्यात युवक (सुदर्श) को तेरा मन लक्ष्मी के पति के रूप में प्रसिद्ध करने के लिए तरुण हो रहा है ।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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