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यदि विषमपाद में दो सगण, जगण तथा दो गुरु हों और समपाद में सगण, भगण, रगण, यगण हों तो उसे कालभारिणी छन्द समझें । यह छन्द केवल जयोदय के (द्वादश सर्ग में) पद्यों में 141 बार आया है - पाणिग्रहण एवं बारात वर्णन के सन्दर्भ में कालभारिणी की उपस्थिति प्रेक्षणीय है - यहाँ जयकुमार के हाथ में सुलोचना अपना दाहिना हाथ सौंपती है
हृदयं यदयं प्रति प्रयाति सरलं सन्मम नाम मज्जुजातिः । प्रतिदत्तवती सतीति शस्तं तनया तावदवाममेव हस्तम् ॥3
उपेन्द्रवज्रा : उपेन्द्र वज्रा 'प्रथमे लघौ सा 4 इन्द्रवज्रा के ही प्रथम अक्षर को लघु कर देने से उपेन्द्रवजा छन्द बन जाता है। यह छन्द जयोदय के 96 वीरोदय के 34 सुदर्शनोदय के 12 श्री समुद्रत्त चरित्र के 16 एवं दयोदय के एक पद्य में उपलब्ध है ।।
इन्द्रवज्रा५ : ___ यह छन्द जयोदय के 35 वीरोदय के 54 सुदर्शनोदय के 10 श्री समुद्रदत्त चरित्र के 13 तथा दयोदय चम्पू में एक पद्य में प्रयुक्त हुआ है।
शार्दूलविक्रीडित ६ : यह छन्द जयोदय के 64 वीरोदय के 38 सुदर्शनोदय के 20 पद्यों में प्रयुक्त हुआ है । "मुनिमनोरञ्जन शतकम्" में शार्दूलविक्रीडित छन्द का आद्योपान्त प्रयोग हुआ है।
नैषधकार के समान ही आचार्य श्री ने अपने प्रमुख काव्यों में सर्गान्त में अपना परिचय एवं प्रशस्ति शार्दूलविक्रीद्रित छन्द के माध्यम से प्रस्तुत की है । छन्द परिवर्तन एवं सर्ग का नामाङ्कन करने में भी इस छन्द का प्रयोग किया है - यहाँ दयोदय चम्पू से एक उदाहरण प्रस्तुत है - इस ग्रन्थ के सर्गान्त का प्रत्येक पद्य शार्दूलविक्रीडित छन्द में ही है -
श्रीमान् श्रेष्ठि चतुर्भुजः स सुषुवे भूरामलेत्याह्वयः वाणीभूषणवर्णिनं घृतवरी देवी च यं धीचयम् । तत्प्रोक्ते प्रथमो दयोदयपदे चम्पू प्रबन्धे गतः
लम्बो यत्र यतेः समागम वशाद्धिंस्त्रोऽप्यहिंसां श्रितः । इस प्रकार यहां कवि के माता-पिता और वर्णित सर्ग की कथा का सङ्केत मात्र दिया गया है कि प्रथम लम्ब में मृगसेन धीवर ने अहिंसा व्रत स्वीकार किया ।
उक्त छन्दों के अतिरिक्त भी आचार्य श्री कृत काव्यों के विविध सर्गों में कोई-कोई पद्य भुजङ्ग प्रयात, मालिनी, इन्द्रवज्रा, वैतालीय, पुष्पिताग्रा, पृथ्वी, तोटक, दोधक, स्रग्धरा, हरिगीतिका, शिखरिणी, अरल, दोहा, रोला आदि विविध छन्दों में पाये जाते हैं । किन्तु इन छन्दों का बहुत कम प्रयोग किया है । इसलिए केवल नामोल्लेख ही उपयुक्त है।
आचार्य श्री की सङ्गीत प्रियता : ताल एवं रागयुक्त काव्य में गेयता आ जाती है । लयबद्धता साहित्य और सङ्गीत को जोड़ने का प्रमुख साधन है । आचार्य श्री ज्ञानसागर के काव्यों में भी देशीभाषा में प्रसिद्ध रागयुक्त