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यमनुमारिवरेण समर्पितां तनुपुरीमनुमन्य वृथा हितां ।
अधिगतस्तदलङ्करणे मतिमचरमात्मगरादकसन्ततिं ॥" इसमें शरीर रूप नगरी को यमराज बैरी द्वारा कैद बताया है फिर भी रात-दिन उसे सजाते हुए हम अनर्थ ही करते हैं ।
आर्या : यस्याः पादे प्रथमे द्वादश मात्रास्तथा तृतीयेऽपि ।
अष्टादश द्वितीये चतुर्थके पञ्चदशः साऽऽर्या ॥ यह छन्द जयोदय काव्य के 1930, वीरोदय के 26, तथा सुदर्शनोदय एवं दयोदय के एक-एक पद्य में प्रयुक्त हुआ है । कवि ने आर्या छन्द के भेद-प्रभेदों को भी प्रयुक्त किया है, यह छन्द प्रायः स्वयंवर वर्णन स्वप्न विवेचन को प्रसङ्ग में निदर्शित है। वीरोदय के चतुर्थसर्ग का एक पद्य उदाहरणार्थ उद्धृत करना समीचीन है -
कल्याणाभिषवः स्यात् सुमेरुशीर्षेऽथ यस्य सोऽपि वरः ।
कमलात्मनः इत विमलो गजैर्यथा नारूपतिमिरम् ।। सुमेरू पर्वत पर इन्द्र द्वारा तुम्हारे पुत्र का अभिषेक होगा, क्योंकि इसकी सूचना आपको स्वप्न में दिखे हाथियों द्वारा अभिषिक्त लक्ष्मी से मिलती है ।
वंशस्थः : वदन्ति वंशस्थ बिलं जतौ जरौ । इस छन्द के एक पाद में क्रमशः जगण, तगण, जगण, रगण होते हैं ।
जयोदय काव्य के 153 वीरोदय के 25 सुदर्शनोदय तथा दयोदय के चार-चार पद्यों में वंशस्थ छन्द आया है। श्रीसमुद्रदत्त चरित्र के 36 पद्यों में वंशस्थ छन्द के दर्शन होते हैंएक उदाहरण प्रेक्षणीय है -
महोदयैनोदितमर्हता तु वदामि तद्वच्छृणु भव्य जातु ।
यदस्ति जातेर्मरणस्य तत्त्वं यथा निवर्तेत तयोश्च सत्त्वम् ।। इसमें जीव के जन्म और मरण को दूर करने के लिए दिव्यज्ञान के धारक अर्हन्त भगवान् द्वारा बताये गये उपाय रूप ज्ञान की समीक्षा का उल्लेख है ।
बसन्ततिलका : . . ज्ञेयं वसन्ततिलकं तभजा जगौ गः ।
यह छन्द जयोदय के अष्टादश सर्ग में प्रभात वर्णन के प्रसङ्ग में मुख्यरूप से प्रयुक्त है । वीरोदय के द्वाविंशति सर्ग में उपसंहार के समय उपस्थित है : सुदर्शनोदय के 15 श्रीसमुद्रदत्त चरित्र के 2 और दयोदय के 5 पद्यों में वसन्ततिलका वृत्त दृष्टिगोचर हुआ है।
कालभारिणी : विषमे ससजा यदा गुरु चेत् सभरा येन तु काल भारिणीयस'