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________________ 203 इसमें श्रीधरा के अष्टमसर्ग में पहुँचकर देव होने का विवेचन है तथा उसके जीव का पुनः अतिवेग की रानी प्रियकारिणी के उदर से पुत्री के रूप में जन्म लेने का उल्लेख भी है । यह छन्द जयोदय के 275 वीरोदय के 42 सुदर्शनोदय के 35 श्री समुद्रदत्त चरित्र के 35 तथा दयोदय के 2 छन्दों में आया है। रथोद्धता : रान्नराविह रथोद्धता लगौ " . • इसके प्रत्येक पाद में रगण के परे नगण, रगण एक लघु और एक गुरु होते हैं। यह छन्द जयोदय के द्वितीय, सप्तम एवं एकविंशतितमः सर्गों के 275 पद्यों में प्रयुक्त है । यहाँ दूतवार्ता, मुनि उपदेश, युद्धप्रयाण", नगरवर्णन के प्रसङ्ग में दृष्टिगोचर होता है । वीरोदय और सुदर्शनोदय के एक-एक पद्य में रथोद्धता आया है - जयोदय काव्य से एक उदाहरण प्रस्तुत है - प्रातरस्तु समये विशेषतः स्वस्थिताक्षमनस साः पुनः सत । . देवपूजनमनर्थसूदनं प्रायशो मुखमिष्यते दिनम् ॥ यहाँ मुनि के उपदेश में गृहस्थ को प्रातकालीन देव पूजा की सार्थकता का सन्देश है मात्रा समक: "मात्रासमकं नभो त्यागान्तम् ।। कवि ने इस छन्द का प्रयोग वनविहार, प्रेमवर्णन, सर्गसमाप्ति आदि के प्रसङ्ग में किया है यह छन्द जयोदय के 266 वीरोदय के 12 सुदर्शनोदय के 17 श्री समुद्रदत्त चरित्र के 3 और दयोदय चम्पू के 4 पद्यों में प्रयुक्त हैं । यहाँ जयोदय का एक उदाहरण द्रष्टव्य है - ललितालकां मूर्धभुवम स्यामुक्ता श्रितामुरजिसमस्याम् । ___ अमृतमयं रदनच्छदबिम्बं लब्ध्वा चाम्बरचुम्बिनितम्बम् ॥ यहाँ जयकुमार सुलोचना के परस्पर आलिंगन और प्रेम का विवेचन है ।। द्रुतविलम्बित : द्रुतविलम्बितमाह नभौ भरौ । ___ इस छन्द के एक पाद में क्रमशः नगण, दो भगण एवं रगण होता है । यह 12 वर्णों के प्रति चरनवाला छन्द है । जयोदय के नवमें एवं पच्चीसवें सर्गों में इसका बाहुल्य है । इस ग्रन्थ के 194 वीरोदय के 9 सुदर्शनोदय के 4 श्री समुद्रदत्त चरित्र के 32 और दयोदय चम्पू को 4 पद्य द्रुतविलम्बित छन्द में निबद्ध हुए हैं । यह छन्द विशेष रूप से वैराग्य वर्णन एवं भावपूर्ण दृश्यों में उपस्थित हुआ है । श्री समुद्रदत्त चरित्र के सप्तमसर्ग में यह विशेष रूप से प्रयुक्त है- एक उदाहरण निम्नाङ्कित है -
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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