SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 200 श्री समुद्रदत्त चरित्र के चतुर्थसर्ग में सत्यघोष मरणोपरान्त सर्प का रूप पाकर राजा के भण्डार में पहुँचाता है और वहीं राजा सिंहसेन को डस लेता है, फलतः उनकी मृत्यु हो जाती है । शोकाकुल रानी रामदत्ता का मर्मस्पर्शी रुदन करुण रस की मार्मिक अभिव्यक्ति है कदापि राजा निज को शसद्यतः परीक्ष्य रत्नादि विनिर्व्रजन्नतः । निवद्धवैरेण च तेन भोगिनां वरेण दृष्टः सहसैव कोपिना ॥ मही समहेन्द्रोऽशनिद्योष सदद्विपः बभूव यच्छो कवशादिहाश्रिपत् ॥ उरः स्वकीयं मुहुरातुरा तदाऽपि रामदत्तात्मदशा वशंवदा ॥ | 24 यहाँ रानी रामदत्ता रस का आश्रय है, मृतराजा सिंहसेन आलम्बन विभाव हैं । रोमाञ्च, वक्षस्थल पर आघात, अश्रुप्रवाह इत्यादि अनुभाव हैं और आवेग, मोह, स्मृति, ग्लानि, चिन्ता सञ्चारी भाव हैं । रौद्र रस : यह रस जयोदय, सुदर्शनोदय, श्री समुद्रदत्त चरित्र में 25 निरूपित हैं। यहाँ सुदर्शनोदय के अष्टमसर्ग का उदाहरण द्रष्टव्य है चाण्डाल द्वारा सुदर्शन के गले पर किया गया तलवार का प्रहार निष्फल हो जाने के बाद राजा स्वयं क्रोधित होकर उसका वध करने को तत्पर है। - एवं समागत्य निवेदितोऽभूदेकेन भूपः सुतरां रुषोभूः । पाखण्डिनस्तस्य विलोकयामि तन्त्रयितत्त्वं विलयं नयामि ॥26 - यहाँ राजा रस का आश्रय है, सुदर्शन आलम्बन विभाव है, तलवार के निष्प्रभावी हो जाने की सूचना उद्दीपन विभाव है । उग्रता, नेत्र लाल होना, सुदर्शन की ओर सक्रोध बढ़ना इत्यादि अनुभाव है और गर्व, अपर्ण, ईर्ष्या इत्यादि सञ्चारी भाव हैं । वीर रस : यह रस जयोदय, 27 श्री समुद्रदत्त चरित्र 28 में विशेष स्थलों पर उपस्थित है - वहाँ जयोदय के अष्टम सर्ग से अवतरित उदाहरण में युद्ध का वर्णन होने से वीररस पल्लवित हुआ है यहाँ जयकुमार रस का आश्रय है, अर्ककीर्ति आलम्ब विभाव है, उसकी युद्धार्थ चेष्टाएँ, हठ, दम्भ, गर्वोक्ति उद्दीपन विभाव है, सेना परस्पर सम्मुख करना, रणभेरी बजाना आदि अनुभाव हैं । धृति, गर्व, तर्क, रोमाञ्च सञ्चारी भाव हैं - सम्पूर्ण अष्टमसर्ग वीर रस से ओतप्रोत है यथा चमूसमूहावथ मूर्तिमन्तौ परापराब्धौ हि पुरः निलेतुमेकत्र समीहमानौ संजग्मतुर्गर्जनया स्फुरन्तौ । प्रधानौ ॥29 वीभत्स रस : इस रस का विवेचन जयोदय के अष्टमसर्ग में ही युद्ध में हताहतों, मृतपुरुषों का मित्रों द्वारा मांसभक्षण किये जाने का वर्णन वीभत्स रस की अभिव्यञ्जना है।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy