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2. जयोदय -- महाकाव्य जयोदय में शान्तरस का सम्यक् विवेचन हुआ है । द्वितीय सर्ग, नवम सर्ग तथा पच्चीस से अट्ठाईस इन तीन सर्गों में भी शान्तरस प्रमुखता के साथ अभिव्यञ्जित हुआ है । यहाँ एक उदाहरण के द्वारा शान्तरस की पुष्टि करना समीचीन हैप्रस्तुत उदाहरण में जयकुमार, रस के आश्रय हैं - संसार की नश्वरता आलम्बन विभाव, भगवान् ऋषभ देव का उपदेश उद्दीपन विभाव है तथा वनगमन, साधुवेष धारण करना दीक्षा लेना आदि अनुभाव हैं । हर्ष, दैन्य, निर्वेद आदि सञ्चारी भाव हैं।
सदाचार विहीनोऽपि सदाचारपरायणः । सुराजापि तपस्वी सन् समक्षोप्यक्षरोधकः ॥ हेलयैव रसाव्याप्तं भोगिनामधिनायकः । अहीन सर्ववत्तारत्कञ्चुकं परिमुक्तवान् ॥ मारवाराभ्यतीतस्सन्नधो नोदलतां श्रितः ।
निवृत्तिपथनिष्ठोऽसि वृत्तिः संख्यानवानभूत् ॥ इसके अतिरिक्त अनेक स्थलों पर जयकुमार के हृदय राम स्थायीभाव पूर्णतः जाग्रत होकर शान्त रस के रूप में निदर्शित हुआ है ।
3. सुदर्शनोदय - इस ग्रन्थ के विभिन्न सर्गों में यत्र-तत्र शान्त रस का विवेचन है। ग्रन्थ का अन्तिम सर्ग शान्तरस से ओत-प्रोत है - से. वृषभदास का दीक्षा ग्रहण, रानी अभयमती, कपिलाब्राह्मणी, देवदत्ता वैश्या आदि की पराजय के पश्चात् क्रमशः निर्वेदजनक वातावरण निर्मित हुआ है । सेठ वृषभदास और सुदर्शन शान्तरस के आश्रय हैं - मुनियों का उपदेश एवं उनका चिन्तन, सांसारिक दुराचार उद्यीपन विभाव हैं तथा संसार की नश्वरता एवं परिवर्तनशीलता आलम्बन विभाव हैं । वनगमन, साधुवेष धारण करना एवं दीक्षाग्रहण करना आदि अनुभाव हैं - निर्वेद, ग्लानि, घृति आदि संचारी भाव हैं - एक उदाहरण प्रस्तुत है
सच्चिदानन्दमात्मानं ज्ञानी ज्ञात्वाङ्गतः पृथक् ।
तत्तत्सम्बन्धि चान्यच्च त्यक्त्वाऽऽत्मन्यनुरज्यते ॥' यहाँ ज्ञानी के सत् (दर्शन) चित् (ज्ञान) और आनन्द (सुख) में लीन रहने और सांसारिक सम्बन्धों के प्रति निर्लिप्त होने का विवेचन है, जिससे शान्तरस की निष्पत्ति हुई है।
4. श्री समुद्रदत्त चरित्र - इस ग्रन्थ का अनुशीलन करने से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि इसमें शान्तरस की प्रधानता है । रानी रामदत्ता द्वारा आर्यिका व्रत ग्रहण करना, राजा अपराजित का दिगम्बरत्व धारण करना, चक्रायुध द्वारा राज्यत्याग एवं वनगमन आदि ऐसे स्थल हैं जिनमें शान्तरस का वातावरण उपस्थित हुआ है और वहाँ इसका विवेचन भी उपलब्ध है । अर्थात् रानीरामदत्ता, भद्रमित्र, सिंहचन्द्र, राजा अपराजित, राजाचक्रायुध ऐसे पात्र हैं, जो शान्त रस के आश्रय हैं ।
जन्ममरण रूप चक्र, संसार की नश्वरता आदि आलम्बन विभाव हैं तथा मुनियों का उपदेश श्वत केश दिखाई देना आदि उद्दीपन विभाव हैं । राज्य त्याग, वनगमर, दिगम्बरत्व ग्रहण आदि अनुभाव हैं और निर्वेद, मति आदि संचारी भाव हैं । यहाँ एक उदाहरण द्वारा