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________________ में स्वीकार करते हुए उसे भी समाविष्ट किया । इस प्रकार काम में नौ रसों की अवस्थिति। का उल्लेख मिलता है । भरतमुनि के अनुसार विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव के संयोग से रस निष्पत्ति होती है । संसार में रति, हास, शोक, आदि भावों के जो कारण होते हैं, वे ही काव्य और नाटक में विभाव कहे जाते हैं - आलम्बन और उद्दीपन - ये विभाव के दो भेद हैं । अनुभाव हृदय के भाव को सूचित करने वाला शारीरिक और मानसिक विकार है - अनुभाव आठ हैं । व्यभिचारी भाव सभी दिशाओं में विचरण करने वाले और स्थायी मात्र में डूबने और उठने वाले होते हैं । इनकी संख्या 33 है । जो दूसरे भावों को अपने में समाविष्ट कर लेता है तथा विरुद्ध अविरुद्ध भावों से अविच्छिन्न नहीं होता, वह स्थायी भाव कहलाता है - आचार्य मम्मट उपर्युक्त भावों पर अपना दृष्टिकोण प्रकट करते हुए अभिव्यक्त करते हैं - व्यक्त:स तैर्विभावाद्यैः स्थायी भावो रसः स्मृतः । अर्थात् विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों से व्यंजित होने वाला स्थायीभाव ही रस है । आचार्य ज्ञानसागर जी के काव्यों में रसाभिव्यक्ति (1) रस - आचार्य ज्ञानसागरजी कृत समस्त काव्य ग्रन्थ शान्त रस, प्रधान हैं। जयोदय महाकाव्य में शान्त रस के साथ ही शृंगार, वीर, रौद्र, हास्य, वीभत्स एवं वत्सल रसों की क्रमशः प्रस्तुति हुई है - वीरोदय में भी शान्त रस के अतिरिक्त क्रमशः हास्य, अद्भुत एवं वात्सल्य रसों का विवेचन हुआ है । श्री समुद्रदत्त चरित्र (भद्रोदय) में भी शान्त रस अङ्गी है और वीर, करुण, रौद्र एवं वात्सल्य का क्रमश: गौण रूप में निरूपण हुआ है । “दयोदय" चम्प में पधान रस शान्त है किन्त भंगार. करुण एवं वात्सल्य भी क्रमशः आकर्षण के केन्द्र हैं । "सम्यक्त्वसार शतक" एवं "प्रवचन सार" ये दोनों कृतियाँ दार्शनिक विषयों पर रचित हैं, अत: इनमें आद्योपान्त शान्तरस की उपस्थिति होना स्वाभाविक है । आचार्य श्री के प्रमुख ग्रन्थों में विद्यमान रसों की क्रमशः सोदाहरण अभिव्यञ्जना दर्शनीय है । शान्तर स - निर्वेद स्थायिभावोऽस्ति शान्तोऽपि नवमो रसः । 1. वीरोदय - महाकाव्य वीरोदय महाकाव्य में शान्तरस आद्योपान्त विद्यमान है। भगवान् । महावीर इसके नायक हैं । उनके हृदय में शम स्थायी भाव वातावरण के अनुसार उद्बुद्ध होकर शान्त रस को उपस्थित कर देता है । संसार की नश्वरता ने आलम्बन विभाव एवं स्वार्थ, मोह, तृष्णा आदि ने उद्दीपन विभाव का कार्य किया है । त्याग, तप, चिन्तन आदि अनुभाव हैं । इस प्रकार शान्तरस की इस काव्य में सृष्टि हुई है - स्वीयां पिपासां शमयेत् परासृजा क्षुधां परप्राणविपत्तिभिः प्रजा । स्वचक्षुषा स्वार्थपरायणां स्थितिं निभालयामो जगतीद्धशीमिति । अजेन माता परितुष्यततीतिर्निगद्यते धूर्तजनैः कदर्थितम् । पिबेनु मातापि सुतस्य शोणितम् अहो निशायामपि अर्थमोदितम् ।। इस प्रकार यहाँ संसार की स्वार्थपरायणता तृष्णा एवं दुराचार का विवेचन है । इसमें प्रकार इस काव्य में अनेक स्थलों पर भी शान्त रस की सृष्टि हुई है । l mi,
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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