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________________ 186 किन्तु प्राकृतिक और भौगोलिक परिवर्तनों के कारण मानव जीवन के समक्ष विकट परिस्थितियों आ गयी । अन्न, द्रव्य, वस्त्रों का सङ्गह होने लगा, छल, कपट, राजनीति, प्रवज्चना जैसे दुष्कर्मों का उदय हुआ । समाज में लूट-पात, शोषण, जातिवाद आदि भाव पनपने लगे। फलतः समाज अमीर और गरीब दो खण्डों में विभाजित हो गया। धनीवर्ग का प्रभाव गरीबों पर हो गया । मानवता में पशुतापन आ गया । जीवन की विषम परिस्थितियों को सहने में अक्षम लोगों ने आत्महत्या जैसे - जघन्य कृत्यों का सहारा ले लिया । दूसरी ओर सुरा और सुन्दरी के मदोन्मत्त व्यक्ति भोग-विलास के शौकीन हो गये । इस सोपान में लेखक ने समाज की विषमता का अत्यन्त यथार्थवादी विश्लेषण किया है । लेखक की सूक्ष्म कल्पनाशक्ति के द्वारा सामाजिक कुप्रवृत्तियों के सभी पक्ष उजागर हो गये हैं - कहीं झोपड़ी में दीपक नहीं जलता तो कहीं विलास गृह में नर्तकियाँ रत्नों से देदीप्यमान होती है । किसी के घर में पालतू श्वान भी दुग्धपान करते हैं, तो कहीं भूखे बच्चे जल पीकर ही सो जाते हैं । कहीं नूपूरों की झंकार है तो कहीं शिशुओं का हृदयद्रावक करुण क्रन्दन । प्रत्येक स्तर पर व्याप्त विषमता से मानव अधिकारों का हनन होता है शिक्षा, प्रशासन, राष्ट्र में भी यह व्यवहार परिलक्षित किया जा सकता है । छल, कपट, राजनीति और हथियारों के बल पर शान्ति स्थायी नहीं रखी जा सकती । इसलिए क्रान्तियाँ होती हैं - जिससे हत्यायें, लूटपाट आदि बढ़ते हैं । व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाती है , फलतः सुनीति का पालन करने वाले कर्णधार (राष्ट्र के) ही सभी कारणों का समाधान करते हैं । समस्याएँ हल करते हैं और उन्नति की ओर प्रेरित करते हैं । महावीर जी ने कहा कि आप जैसे तरुणों को सक्रिय होकर समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर कर शान्ति स्थापित करना चाहिए। भगवान् के सारगर्भित उपदेशों से प्रभावित इन्द्रभूति ने निर्ग्रन्थ दीक्षा लेकर महामुनि के मार्ग पर चलने का निश्चय किया । "मङ्गलायतनम्' के अन्तिम सोपान में तत्त्वोपदेश, ईश्वरस्वरूप, कर्म का स्वरूप, स्याद्वाद का स्वरूप आदि पर विचार किया गया है । अन्त में वर्धमान निर्वाण को प्राप्त होते हैं । भगवान् इन्द्रभूति आदि शिष्यों के अनुरोध पर मोक्षतत्त्व पर विचार करते हैं- "लोकेऽस्मिन् न सर्वथा रोगात निवारणं, न क्लेशान्मुक्ति, न च शाश्वतिक सुखम् । विशालं साम्राज्यं तुणवत्तुच्छम् समुपार्जिताः सर्वाः सम्पत्तयश्च नाशशीलाः । अत एव रत्नत्रयं धर्ममेवाप्यैव संसार समुद्रः सन्तरणयोग्योभवति, नान्यथा ।" जीवोऽयमेकाकी एवाऽऽगच्छति निर्गच्छति च । शरीरमपि न स्वकीयं स्वेन सह यात्यायाति वा । अतः धर्मपालनमेव श्रेयस्करम् ।'148 सामान्य धर्मोपदेश करते हुए वर्णन करते हैं - कि जीव के क्रिया कलाप शरीर से ही होता है - उसके 5 प्रकार हैं - औदारिक, वैक्रियिक, आहारक', तैजस52 और कार्माण । यह 5 प्रकार का शरीर मनुष्य के जन्ममरण का मूल कारण है । पञ्चाणुव्रतों का प्रतिपादन करते हैं - अहिंसा, सत्य अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह परिमाण । पञ्चाणुव्रत के पश्चात् सात सहायकव्रत, जो प्रत्येक गृहस्थ को पालन करना चाहिये, निरूपित किये गये हैं - इनमें तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत सम्मिलित हैं । गुणव्रत हैं - दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोग परिमाण । चार शिक्षाव्रत ये हैं - देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य ।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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