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________________ 187 इस प्रकार ये 3 गुणव्रत एवं 4 शिक्षाव्रत मिलकर 7 शीलव्रत कहे जाते हैं । उपर्युक्त 5 अणुव्रत और 7 शीलवत सहित 12 व्रत गृहस्थों के लिए उपयोगी हैं । इसी प्रकार हिंसादि पञ्चपापों का पूर्ण परित्याग करना अहिंसादि 5 महाव्रत हैं। उनका पालन निर्ग्रन्थ साधुजन करते हैं । आत्मा स्वभाव से रूपादिरहित, अर्थात् अमूर्तिक है, किन्तु अनादिकाल से कर्म के संबन्ध के कारण रूपादिवान अर्थात् मूर्तिक लगता है। कर्मबन्धन का कारण आस्रव है । मोक्षार्थी अपने आपको कर्मों से विमुक्त कर शुद्धस्वरूप को प्राप्त कर लेता है । इसी अवस्था में आत्मा सर्वदर्शी, सर्वज्ञ एवं विराट् स्वरूपवाला हो जाता है । यह आत्मा 3 प्राकर की है - बहिरात्मा', अन्तरात्मा'7, परमात्मा । मोक्षमार्ग का विवेचन करते हुए अभिव्यक्त करते हैं कि सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीनों के समुच्चय को मोक्षमार्ग कहते हैं । तत्त्वार्थ की श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन है 59 तत्त्वार्थ सात हैं - जीव, अजीव, आस्रव, सम्वर, बन्ध, निर्जरा और मोक्ष । जीव का लक्षण चेतनावान् है - चेतना लक्षणोजीवः । वह दो प्रकार का है - संसारी और मुक्त । संसारी में भी त्रस और स्थावर ये दो भेद हैं । फिर त्रस भी दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रिय के भेद से 4 प्रकार के हैं । पाँच इन्द्रिय वालों में संज्ञी और असंज्ञी होते हैं । स्थावर के 5 भेद हैं - पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति । “अचेतनालक्षणोऽजीवः ।" अर्थात् चेतनारहित अजीव कहलाता है । इसके 5 भेद हैं - पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । कर्मों के आने के द्वार का नाम आस्रव है । यह दो प्रकार का है - भावास्रव और द्रव्यास्रव । जिन मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगरूप भावों से कर्म आता है, वे भाव भावानव है और कर्मों का आना द्रव्यास्रव है ।62 इस आस्रव का रुकना सम्वर है । यह भी दो प्रकार का है - भाव सम्वर और द्रव्य सम्वर । गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय, और चारित्ररूप भावों के आस्रव का रुकना भाव सम्वर है और द्रव्यास्रव का रुकना द्रव्यसम्वर हैं। सञ्चित कर्मों का एकदेश क्षय होना निर्जरा तत्त्व है । इसके भी 2 भेद होते हैं - भाव निर्जरा और द्रव्य निर्जरा । कर्म की शक्ति को क्षीण करने में समर्थ जो शुद्धोपयोग है (जो अन्तरंग और बहिरङ्ग तपों से परिवृहित है) वह भाव निर्जरा है तथा निःशक्तिक हुए पूर्वसञ्चित कर्मपुद्गलों का झड़ जाना द्रव्य निर्जरा है । लेखक सारगर्भित स्पष्टीकरण करते हुए विश्लेषित करता है - जीवप्रदेश और कर्मप्रदेशों का जो परस्पर संश्लेष है, वह बन्ध है । भाव बन्ध और द्रव्य बन्ध इसके दो मूल रूप हैं । शुभ या अशुभ, मोह, राग और द्वेष रूप परिणाम भाव बन्ध हैं और उसके निमित्त से कर्मपुद्गलों का जीव के प्रदेशों के साथ बन्धना द्रव्यबन्ध हैं । द्रव्यबन्ध 4 प्रकार है - प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध 163 सम्वर और निर्जरा द्वारा समस्त कर्मों का अभाव हो जाना मोक्ष है। इस प्रकार सात तत्त्वों का यथावत् श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है और इन्हीं तत्त्वों का यथार्थज्ञान सम्यग्ज्ञान है - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अविधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान । सम्यग्ज्ञान के अन्तर्गत आते हैं । हिंसादि पाँच पापों का परित्याग करना सम्यक्चारित्र हैं।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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