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________________ - - 185 - - जाकर वहाँ के नरेश की प्रार्थना पर पारणाग्रहण की और पुनः वन को प्रस्थान किया । मानअभिमान, अपमान, सुख:-दुःख ग्राम नगर आदि के प्रति वे समभाव रखते थे । शत्रु-मित्र को समान समझते थे। कार ग्राम के गोप का हृदय परिवर्तन करना महावीर की दिव्य (लोकोत्तर) प्रतिभा काही प्रमाण है। वे अस्थि ग्राम गये। एक बार उन्हें विषम मार्ग (2 से न जाने को गोपालकों ने कहा-क्यों कि वहाँ दृष्टिविष नामक विकराल सर्प रहता है जो पथिकों को दंशित करता है । उसी मार्ग से जाकर वे बिलद्वार पर खड़े हो गये, सर्प के काटने पर विचलित न हुए और अहिंसा के बल पर सर्प को जीत लिया। इस प्रकार एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते हुए उन्होंने अनेक उपसर्ग सहन किये । इसके पश्चात् ब्राह्मण, ग्राम, चम्पा, कालायस, पत्रकालय, कुमाशक, चौराक, कयङ्गला, श्रीवस्ती आदि आदि स्थानों में घूमते हुए हल्वदय ग्राम में पदार्पण किया और एक वृक्ष के नीचे बैठकर समाधि लगा ली। वहाँ कुछ यात्री आये उन्होंने सूखे घास पत्रों से अग्नि प्रज्ज्वलित की । प्रातः वे आग को बिना बुझाये ही कहीं चले गये । कुछ ही क्षणों में वह आग संपूर्ण वन में फैलकर महावीर के सन्निकट पहुँच गयी, लेकिन अचल रहते हुए साहस के साथ अवस्थित ही रहे, उनके प्रभाव से अग्नि शान्त हो गयी । इसके पश्चात् अनेकों प्रदेशों का पर्यटन किया स्वयं इन्द्र ने उनकी परीक्षा ली । तत्पश्चात् चन्द्रमा नामक नवधाभक्ति से पूर्ण हृदय वाली स्त्री के द्वारा आहार ग्रहण किया और वह बन्धन मुक्त हो गयी । महावीर को ऋजूकूला के तट पर साल वृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ल की दशमी के दिन केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । उसी पवित्र स्थान पर समवशरण की स्थापना की गई । चतुर्थ सोपान में इन्द्रभूति नामक विद्वान ब्राह्मण के द्वारा समवशरण में आकर शिष्यता स्वीकार करने का वृत्तान्त रोचक शैली में चित्रित किया गया है - भगवान् इन्द्र विप्र वटु के वेष में इन्द्रभूति गौतम से एक. श्लोक का अर्थ पूछते हैं । किन्तु यह शर्त थी कि यदि आप श्लोक का अर्थ ठीक से न समझा पाये तो आपको हमारे गुरु की शिष्यता ग्रहण करनी होगी और यदि श्लोक का अर्थ सही रहस्य समझा दोगें तो मैं तुम्हारी शिष्यता जीवनपर्यन्त स्वीकार कर लूँगा । अन्ततोगत्वा गौतम श्लोक का रहस्य समझाने में असफल होते हैं । तत्पश्चात् इन्द्रभूति को जिनपति के समवशरण में प्रविष्ट कराया गया । वहाँ के वातावरण से प्रभावित इन्द्रभूति पद्मासन लगाकर विराजमान वर्धमान के अलौकिक तेज और देह की स्वाभाविक कान्ति का अवलोकन करता है। उनकी दिव्य तपश्चर्या, गम्भीरता, स्थिरता, तेजस्विता, शान्तिप्रियता से रोमांचित होकर अपने मिथ्याभिमान पर पश्चाताप करता है और जिनपति के चरणकमलों की समाराधना में अपना परमकल्याण समझकर उनकी शिष्यता सहर्ष स्वीकार कर लेता है । फिर एक बार संसार और परमार्थ के गूढ़ रहस्य को जानने की अभिलाषा करता है । भगवान् उसके प्रश्न का समाधान करते हैं । भगवान् समझाते हैं - "कदाचिदिभे मनुष्याः सहोदर भ्रातर इव निवसन्तिस्म । न कदापि स्वार्थ सिद्ध्यर्थं परस्परं कलहायतेस्म कश्चित्। न भूमेर्विभाजनं भवति, न सम्पत्तेवितरणम् न च सदनस्य विभागो दृश्यते । न कोऽपि सम्पत्यर्थ भ्रातरं हन्ति, न पितरं विरुणाद्धिन मातुराज्ञामुल्लङ् घयति, न धर्म जहाति, न मर्यादामतिक्रामति। सर्वेऽपि स्वकीयं कर्त्तव्यमेव सन्ततं परिपूरयन्ति । आचार-विचार, शिष्टाचार-शिलायाः नियमान् यथार्थं परिपालयन्ति ते । पतितस्योद्धाराय, मार्गभ्रष्टं मार्गे समानेतुं गहनान्धकार व्याकुलस्य प्रकाश, वासहीनेभ्यो वस्त्रम् भूमिहोनोस्य भूमिम्, अशरणेभ्यश्च शरणं प्रदातुमेव तेषां सकलमपि जीवनं व्यस्तमासात् ।"
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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