SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 184 और गरिमामय चित्रण किया है - 'चैत्रमासस्य शुक्ल पक्षे त्रयोदश्यामुत्त राफाल्गुनीगते सुधाकरे रोहिणी नक्षत्रे, सोमवासरे, सिंहलग्ने शुभे च मुहूर्ते विद्युत्प्रकाशमिव मेघमाला दिवाकरमिव प्राची, पूर्णचन्द्रमिव पूर्णिमा त्रिशला सुतमसूत । बालस्य तस्यानन्यसाधारणस्य जन्मसमय मन्दसुरभित शीतलः पवनः संचार । दिनकरोऽपि चन्द्र एव लोभनीयो जातः । सर्वे जीवाः विगतमात्सर्यभावा अभूवन् ॥ सूर्योदये पद्मिनी व सकलापि जगती विकासमभूत् ।46 तीर्थङ्कर का जन्ममहोत्सव अत्यन्त धूमधाम के साथ सम्पन्न किया गया। मङ्गलायतमन् के द्वितीय सोपान में उनका नामकरण पुत्रोत्सव पर माता-पिता की प्रसन्नता, वर्धमान की बाल्यक्रोडाओं का हृदयहारी प्रकाशन किया गया है । द्वितीय सोपान में ही संगमदेव वर्धमान की परीक्षा लेकर स्तुति करता है । इसके पश्चात् उनके पराक्रम पूर्ण कार्यों का उद्घोष भी किया गया है । मदोन्मत्त गजेन्द्र को वश में करते हैं, जिससे उनका यश सर्वत्र विख्यात होता है । ग्रन्थकार ने इसी परिप्रेक्ष्य में वर्धमान के प्रतिभाशाली व्यक्तित्व का उद्घाटन भी कर दिया हे - उन्हें वेद, पुराण, इतिहास, काव्य, दर्शनशास्त्र, तर्क आदि का मर्मज्ञ निरूपित किया गया है । यौवनावस्था में विवाह के अनेकों प्रस्ताव आते हैं । किन्तु सभी को अस्वीकार करके पिता के समक्ष वैराग्य धारण करने और वन गमन करने की अभिलाषा प्रकट करते हैं । माता-पिता के बार-बार समझाने पर भी राज्याभिषेक नहीं कराते । अन्ततोगत्वा पिता से आज्ञा लेकर वन प्रस्थान करते हैं, रोती हुई वृद्ध माता त्रिशला की ममता साकार करूणा के रूप में आँखों से बहती । 'यदि त्वं वनं गच्छसि तदाऽविरल पतितैर श्रुभिः ममाञचलं निरन्तरं क्लिन्नं भविष्यति। वृद्धावस्थायां त्वां विहाय किमस्ति मे सम्बलम् । रुदतीं मातरं तिरस्कृत्य न त्वया वनं गन्तव्यम्। नाहं पीड़ितानासहाया च कर्तव्या, इत्युक्त्वा तस्याः नेत्रकमलयोरक्षुण्णामजस्त्रधारा धरायां निपतात् । किन्तु माता को मोहभङ्ग करने, सांसारिक बन्धनों एवं सम्बन्धों की क्षणभङ्गरता का उपदेश देकर लोकल्याणकारी कार्य के लिए वैराग्य धारण कर लेते हैं । राजकुल और प्रजा उनके वियोग में दुःखी होती है, किन्तु अलौकिक दिव्य शक्तियां वर्धमान के वैराग्य धारण का अनुमोदन ही कराती हैं । इस ग्रन्थ में प्रकृति के विभिन्न रूपों रम्यरमणीय एवं उग्रदृश्यों की झांकी मिलती है । भाषा का प्रवाह और शैली की सरसता पाठकों को आद्यान्त आकृष्ट किये रखती है। वर्तमान युग के साहित्य स्रष्टाओं को यह ग्रन्थ प्रेरणादायक सिद्ध हो सकता है । भावों की उदात्त्ता एवं सूक्ष्मता के साथ गम्भीर दृश्यों का सरस वातावरण में वर्णन मनोहर बना हुआ है। लेखक की कल्पनाशक्ति, वर्णनवैचित्र्य, भावानुकूल अभिव्यञ्जना ही मंगलायतनम् की कीर्ति का प्रमाण हैं। "मङ्गलायतनम्" का तृतीय सोपान महावीर के महनीय व्यक्तित्व का प्रेरक है। वर्धमान निर्ग्रन्थ दीक्षा ग्रहण करते हैं - यहाँ वनप्रदेश का काव्यात्मक चित्रण किया गया है । प्राकृतिक वातावरण में नवचेतना आ जाती है । प्रकृति का सुकुमार सुरम्य चित्रण किया गया है । वन्य प्राणी अपनी-अपनी वाणी में उनका स्वागत करते हैं । महावीर स्वामी आत्मचिन्तन में लीन हो जाते हैं । वे घोरतप करना प्रारम्भ करते हैं - शीतोष्णादि बाधाओं की परवाह न करते हुए हिंसक प्राणियों के बीच निर्भीक होकर निराहार ही तपस्याचरण किया । एक दिन कूलग्राम
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy