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________________ | 183 'मङ्गलायतनम्'139 नामक गद्य रचना में चित्रित किया गया है। इसके रचयिता श्री रणवीर संस्कृत विद्यालय, (काशी हिन्दु विश्वविद्यालय) वाराणसी में संस्कृत प्राध्यापक श्री पण्डित बिहारी लाल शर्मा साहित्याचार्य हैं । ज्ञानरुचि सम्पन्न इस तरूण साहित्यकार को महावीर का जीवनवृत्त लिखने की प्रेरणा भारतीय वाङ्मय के अप्रतिभ विद्वान् डा. दरबारी लाल जी कोठिया से प्राप्त हुई । 'मङ्गलायतनम्' नामक गद्य काव्य पाँच सोपानों मे विभक्त है । संस्कृत महाकाव्य के साहित्य शास्त्रियों द्वारा निर्धारित प्रायः सभी लक्षण इस ग्रन्थ में दृष्टिगोचर होते हैं। इस दृष्टि में आचार्य विश्वशाथ के साहित्यदर्पण में प्राप्त महाकाव्य का लक्षण सर्वाङ्गीण और व्यापक है । मङ्गलायतनम् का कथानक पुराणेतिहास में विख्यात आख्यायिका ही है - वृत्त ऐतिहासिक है । भगवान् महावीर इसके नायक'47 हैं । वे धीर प्रशान्त 42 नायक की श्रेणी आते हैं यत: वे वैराग्य सम्पन्न हैं । इस काव्य में शान्तरस143 प्रधान है तथा अन्य स्थलों पर शृङ्गार, वीर, करुण, अद्भुत, आदि का प्रयोग भी मिलता है सूर्य, चन्द्र, रजनी, प्रदोष, दिन, मध्याह्न, प्रभात, पर्वत, वन, सरोवर, मुनि, स्वर्ग, नगर, ग्राम, सङ्घाम आदि के वर्णन प्रसङ्गानुकूल मिलते हैं । ___ "मङ्गलायतनम्' में स्वच्छन्द रस प्रवाह शब्दार्थालङ्कार की झंकार, कोमलकान्तपदावली और भौतिक विडम्बनाओं, दार्शनिक गूढ़ रहस्यों आदि का समन्वय अत्यन्त सुन्दर ढंग से हुआ है । इस प्रकार समीक्षकों के निष्कर्ष पर यह गद्य ग्रन्थ मौलिक उद्भावनाओं से ओतप्रोत प्रमाणित हुआ है । लेखक का मनन चिन्तन, भावभंगिमा और भाषा का साहित्यिक रूप आदि गुणों ने ग्रन्थ को पूर्णता प्रदान की है । _ 'मंगलायतनम्' की प्रथम सोपान में भारतभूमि का प्राकृतिक चित्रण अभिव्यञ्जित हुआ है, विभिन्न स्थानों जैसे- वैशाली, कुण्डग्राम, विदेह वर्णन अत्यन्त सजीव बन गये हैं । लेखक ने गद्य काव्य के अनुरूप साहित्यिक परिमार्जित शैली को प्रतिष्ठित किया है । भारतभूमि की वन्दना नतमस्तक होकर लेखक ने अलङ्क त शैली में अभिव्यंजित की है । कोमलकान्त पदावली कितनी आकर्षक बन पड़ी है - 'त्रिभुवनलक्ष्म्याः विलास स्थलीव, भुवनसदने देदीप्यमाना दीपशिखेव, जगत्सरसि विकसिता सरोजिनीव विश्वपुरुषस्यात्म शक्तिरिवास्ति वन्दनीया भारतभूमिः । प्रथम सोपान में महाराज सिद्धार्थ के शासन का उनकी प्रजावत्सलता का, ऐश्वर्य का गौरवपूर्ण चित्रण किया गया है । उपमालङ्कार प्राय: सर्वत्र ही इस गद्यग्रन्थ में छा गया है । उसने भाषा की छटा निखार दी है - सिद्धार्थ के प्रशासन का वर्णन करने में लेखक की सूक्ष्मकल्पना शक्ति और भावभङ्गिमा हमें नैषधीय चरित के रचयिता श्री हर्ष की कल्पना शक्ति का स्मरण दिलाती है - एक दृश्य द्रष्टव्य है - यस्य च प्रशासनकाले कलङ्को मृगाङ्के, कलहो रतिकलासु, क्षतिर्नखानाम्, आलस्यं गजगमनेषु, प्रवञ्चना मृगतृष्णासु, मानभङ्गो मानिनीनाम्, नमनं शाखानाम्, नियमनं पापस्य, कुटिलता भुजङ्गगमनेषु कठोरता पाषाण खण्डेषु सजलता च सरित्स्वेवासीत् । संस्कृत साहित्य में इस प्रकार के काल्पनिक दृश्य बहुत कम स्थलों पर हैं । बाणभट्ट की भाषा और उन्हीं की शैली से प्रेरणा लेकर लेखक ने यह ग्रन्थ निर्मित किया है । रानी त्रिशला के षोडश स्वप्नों का दर्शन होता है । सिद्धार्थ उन स्वप्नों का फल बताते हैं - निष्कर्ष यह होता है- तीर्थङ्कर उनके उदर से जन्म लेते हैं । लेखक ने जन्म के समय का उज्ज्वल
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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