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- 181 चन्द्रप्रभ प्रभोः पादे गुरोः श्री शान्तिसागरात् ।
खुशालचन्द्रात्सञ्जातो दीक्षाख्यश्चन्द्रसागरः ॥ इस पद्य में बताया गया कि चन्द्रसागर मुनि का पूर्व नाम खुशालचन्द्र था, दीक्षा स्थलीस्वर्णगिरि थी और दीक्षागुरु थे श्री आचार्य शान्तिसागर । अन्तिम पद्य में कवि ने अपने नाम
का उल्लेख करते हुए गुरुचन्द्र सागर को सहर्ष अपने मन में विराजमान रखने की भावना | व्यक्त की है । उन्होंने लिखा है -
यद्भक्ति भावनामिन्द्रः स्वान्तभवियते मुदा । सदा मन्मनसि स्थेयात् स गुरुश्चन्द्रसागरः ।।
"कमारी माधुरी शास्त्री" आपकी माता आर्यिका रत्नमती जी हैं और आर्यिका ज्ञानमती जी हैं-बड़ी बहिन। संपूर्ण शिक्षा आपने हस्तिनापुर में ही प्राप्त की है । सम्प्रति आप हस्तिनापुर में ब्रह्मचर्य की | साधना में रत हैं।
आपकी दो स्फुट रचना हैं । दोनों का विषय आर्यिका रत्नमती की स्तुति एवं जीवन । चरित हैं । दोनों का एक साथ ही प्रकाशित भी हुई हैं ।136
प्रथम रचना में पाँच पद्य हैं । श्लोकों के अन्तिम चरण में लेखिका ने आर्यिका रत्नमती को नमन किया है। उदाहरण-स्वरूप एक पद्य प्रस्तुत है । इसमें रत्नमती के दीक्षागुरु धर्मसागर महाराज का नामोल्लेख करके रत्नमती के नाम को सार्थक नाम बताया गया है -
श्री धर्मसागर गुरोः प्रणिपत्य भक्त्या , जग्राह त्वं शिवकरं व्रतमार्यिकायाः । अन्वर्थनामा किल "रत्नमती" दधासि,
त्वामार्यिकां प्रणिपतामि सदैव मूर्खा ॥ दूसरी रचना में इक्कीस श्लोक हैं । इनमें आर्यिका रत्नमती का जीवन-वृत्त अङ्कित किया गया है । कुमारी माधुरी ने रत्नमती के नाम की सार्थकता के रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा है कि आपकी तेरह सन्तान है । सभी रत्नसदृश होने से पिता रत्नाकार और माता निश्चय से रत्नवती हैं । कवियत्री के इन विचारों का उद्घोष निम्न शब्दों में हुआ है -
त्रयोदश सन्तानाः स्युस्तयोस्ते रत्नसदृशाः ।
पिता रत्नाकरोऽतः स्यात् माता रत्नवती च वै ॥
आर्यिका रत्नमती जी को कवियित्री ने अपनी जननी कहा है तथा उन्हें करबद्ध नमन किया है
हे रत्नमति ! जननी ! हे मातः यशस्विति ।
अम्बिके भो नमस्तुभ्यं कृत्वा बद्धाञ्जलिर्मुदा ॥ - यह ही नहीं अन्तिम श्लोक में कवियत्री ने अपने को आर्यिका रत्नमती की बालिका होना भी दर्शाया है तथा उनके शतायु होने की कामना की है
रत्नमत्यार्यिका माता जीयात् वर्षशतं भुवि । माधुरी बालिकायाश्च पुण्यात् सर्वमनोरथम् ॥