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________________ 178 अनुशीलन मानव वृत्ति में व्याप्त कषाय उसकी भवन्धन से मुक्ति के लिए अवरोधक हैं। कषाय दुःख के मूल कारण हैं। इनमें क्रोध, मान, माया एवं लोभ प्रधान कषाय हैं। जिनके कारण मनुष्य पथ भ्रष्ट हो जाता है। क्रोध - क्रोध के वशीभूत होकर समान सुख, शान्ति एवं आत्मीय सम्बन्धों को दृष्ट करता है क्रोधी व्यक्ति दुष्टवत् व्यवहार करने लगता है। क्रोधाग्नि में जलते रहने के कारण उसकी चेष्टाएं शराबी व्यक्ति के समान हो जाती हैं । उसका खान, पान, निद्रा आदि क्रियाएँ अव्यवस्थित होती हैं । भाव यह है कि क्रोध अनर्थ की जड़ है। मान मान मनुष्य के मन में अहंकार उत्पन्न करने वाला कषाय है । मानी व्यक्ति अपनी जाति, कुल, रूप, शरीर, बुद्धि धन को श्रेष्ठ मानता है । और दूसरों को तुच्छ समझता है । देव, गुरु और सज्जनों की उपेक्षा करता है । वह मदज्वर से पीड़ित रहने के कारण सुख, शान्ति, कीर्ति, विद्या, मित्रता, सम्पत्ति, प्रभुता, मनोवाञ्छित सिद्धि को प्राप्त नहीं र पाता है । दास, मित्र और आत्मीय जन उससे असनतुष्ट होकर साथ छोड़ देते हैं - न मानिनः केऽपि भवन्ति दासाः, न मित्रतां याति हि कश्चिदेव, निजोऽपि शत्रुत्वमुपैति तस्य, किंवाथ मानो न करोति नृणाम् ॥ 29 - माया "माया" मनुष्य को सर्वाधिक कष्टदायक कषाय हैं। सिंहनी, शरभी, राक्षसी, अग्नि, शाकिनी, डाकिनी, हथियार एवं ब्रज से भी अधिक घातक माया मनुष्य का पतन करती है । माया व्यक्ति मधुर वचन बोलता है, परन्तु कार्य उल्टे ही करता है । माया के कारण सच्चरित्र, सुशील, मृदु, बुद्धिमान व्यक्ति भी लघुता और अपमान को प्राप्त होता है। देवता, सज्जन और राजा की सेवा में संलग्न होने पर भी मायावी की कार्य सिद्धि नहीं हो पाती । वह आत्मीय जनों के लिये अविश्वसनीय हो जाता है । वास्तव में माया, धर्म, यश, अर्थ और काम की बाधक और दुःखों की जननी है। - लोभ " लोभ" तृष्णातुर करने वाला कषाय है . लोभी व्यक्ति धनप्राप्ति की आशा से धरती, पर्वत, समुद्र एवं सभी दिशाओं में भटकता रहता है । शीतोष्ण, वर्षादि व्यवधानों की अपेक्षा करके धन संचय का प्रयत्न करता है । क्षुधा, पिपासा, को सहना है । पूजन, दान एवं उपदेशों के प्रति अनास्था रखता है। धर्म, कर्म का अनादर करके धर्नाजन के लिये सदैव श्रमरत रहता है । इस प्रकार उक्त कषायों का त्याग करना ही मनुष्य के लिये श्रेयस्कर है । 44 " "पं. महेन्द्रकुमार शास्त्री 'महेश' महेश जी का जन्म आसोज कृष्णा द्वादशी विक्रम सम्वत् 1975 में हुआ था । श्री चुन्नीलाल जी आपके पिता और नत्थीबाई माता थी । आपके दो भाई और बहिनें हैं। आपकी पत्नी लक्ष्मीदेवी नाम सार्थक कर रही है । दिगम्बर जैन बोर्डिंग ऋषभदेव में आप प्रधानाध्यापक रहे हैं । महासभा और जैन सिद्धान्त संरक्षिणी सभा के आप महोपदेशक भी रहे। आर्यिका परिचय, अर्चना और त्रिलोकसार आपकी रचनाएँ हैं । आप सफल प्रतिष्ठाचार्य हैं । सम्प्रति आप मेरठ में रहते हैं 130 आपकी एक स्फुट रचना प्रकाशित हुई है । 31 इसमें केवल पाँच श्लोक हैं । इन श्लोकों में आचार्य शिवसागर महाराज के मरण पर कवि के दुःखों की अभिव्यक्ति हुई है । कवि
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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