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________________ 175 छात्राणां कल्पवृक्षाय, बुधानां कामधेनवे । संस्थानां च सदा चिन्ता-मणये वर्णिने नमः ॥ रचनाकार की दूसरी स्फुट रचना 'गोपालदासो गुरुरेक एव' शीर्षक से प्रकाशित है ।23 प्रस्तुत रचना में गुरू गोपालदास वरैया को 'गुरूणां गुरुः' कहकर उपास्य निरूपित करते हुए रचनाकार ने लिखा है कि वरैया जी एक अच्छे कुल में जन्म हुआ था । अपने कृतित्व से उन्हें यथेष्ट सम्मान मिला । उनके चरणारविन्द पूज्य हुए । कवि ने उन्हें सभी विद्वानों का उपास्य बताया है - श्रीमद्वरैया वरवंश जन्म, सन्मान्य मान्यार्चित · पादपद्मः । गोपालदासः स गुरुर्गुरूणा-मुपासनीयो विदुषां न केषाम् ।। वरैया जी की विशेषताओं का उल्लेख करने में कवि की लेखनी सफल हुई है। कवि ने उनकी दानकर्म प्रवृत्ति का निर्देश करने के पश्चात् उन्हें छात्रों के पुत्र के समान स्नेह देने वाला बताया गया है, वे रूढ़ियों के उन्मूलक थे और सामाजिक सुखों के अभिलाषी भी - दानादिसत्कर्मरतः स्वतो यः, शिष्यान् स्वपुत्रानिव रक्षति स्म । सोऽशेषलोकान् सुखिनो विधातुं, विच्छेद रूढ़ी विषवल्लरीस्ताः॥ इस प्रकार गुरुओं के प्रति श्रद्धा-भाव, संस्कृत भाषा का स्नेह रचनाकार की इन विशेषताओं का एक ओर यहाँ उल्लेख है, दूसरी ओर रचनाकार की भाषा-ज्ञान की गम्भीरता का भी सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है । प्रस्तुत रचना में 'गागर में सागर' भरे जाने की कहावत चरितार्थ होती है । आपकी संस्कृत - सेवाए स्तुत्य हैं। रचनाएं अल्पकाय होकर भी गाम्भीर्य की प्रतीक है । आपकी तीसरी स्फुट रचना 'श्रद्धाप्रसूनाञ्जलि' शीर्षक से प्रकाशित हुई हैं । इसमें भाषा का प्रवाह, विषयानुकूल पदावलि के प्रयोग द्रष्टव्य है । आचार्य महावीर कीर्त्ति की विशेषताओं के सन्दर्भ में कवि ने अपने विचार व्यक्त करते हुए बताया है कि आचार्य श्री विमलगुण रूपी मणियों की माला से अलङ्कत थे । मुनियों में प्रमुख थे । गुणियों में महान गुणी थे । उनकी आज सभी याद करते हैं । कवि ने इन विचारों को निम्न प्रकार श्लोकबद्ध किया है - विमलगुणमणीनां मालयालङ्कतो यः, सदसि मुनिजनानामग्रगण्यो बभूव । गुणिगण गणनीयं श्रीमहावीर कीर्ति, ___ अधिगतसुरलोकं के न तं संस्मरन्ति । कवि की वर्णन शैली सराहनीय है । आचार्य श्री को उन्होंने उन रत्नों का आश्रयी बताया है जो अनेक शास्त्र रूपी समुद्र-मन्थन से उन्हें प्राप्त हुए थे । वे पवित्र, आचारविचार के आगार थे । मधु-मक्खियों के उपसर्ग जनित दुःख की असह्य पीड़ा उन्होंने सहन की थी । कवि ने अपने इन विचारों को इस प्रकार प्रकट किया है - नानाशास्त्र-समुद्रमन्थनभवत्, सद्बोधरत्नाश्रयः, शौचाचार-विचार-चारुचरितः श्रद्धापवित्रालयः, संसेहे मधुमक्षिकादिजनिताः पीड़ा असह्याश्च स, तस्मै श्री गुरवेऽर्ण्यतेऽत्र भवते श्रद्धाञ्जलिः प्रश्रयात् ॥
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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