SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 174 अनेकरत्नैरतिदीप्तिमद्भिः , यया प्रसूतैः समलङ्कतोर्वी । अन्वर्थसंज्ञामनवद्यकीर्तिम्, तामार्यिकां रत्नमतीं नमामि ॥ पं. अमृतलाल शास्त्री आपका जन्म उत्तरप्रदेश के झाँसी जिले में वमराना नामक ग्राम में सात जुलाई, 1919 को हुआ था । श्री बुद्धसेन जी आपके पिता और सोनादेवी माता थीं। बचपन में ही मातापिता का स्वर्गवास हो जाने से वमराने के सेठ चन्द्रभान जी ने आपको पढ़ाया था । साढूमल, बरूआसागर, ललितपुर, मुरेना और बनारस में आपने शिक्षा प्राप्त की। जैन दर्शनाचार्य, साहित्याचार्य, और एम.ए. परीक्षाएँ आपने बनारस में ही उत्तीर्ण की थी। ईसवी 1944 से ईसवी 1958 तक आप स्याद्वाद महाविद्यालय में अध्यापक तथा इसके बाद संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी में व्याख्याता रहे । आपने द्रव्यसङ्ग्रह, चन्द्रप्रभचरितम्, तत्त्वसंसिद्धि ग्रन्थों का अनुवाद किया ।27 बनारस के पश्चात् आपने अपनी सेवाएँ विश्वभारती लाडनूं को दी । वर्तमान में आप लाडनूं में हैं। संस्कृत भाषा पर आपका अधिकार है। आपकी मौलिक स्फुट रचनाओं में भाषा का प्रवाह है । उपमाओं का प्रयोग है । 'वर्णी-सूर्यः' शीर्षक से प्रकाशित रचना22 में आपने अशिक्षा को राक्षसी और रूढ़ियों को पिशाचिनी की उपमा दी है तथा उन्हें शीघ्र द्रवित करने के लिये वर्णी जी को सूर्य रूप माना है । द्रष्टव्य है निम्न श्लोक अशिक्षाराक्षसी श्लिष्टां हृष्टां रूढिपिशाचिनीम् । - द्रुतं यो द्रावयामास वर्णिसूर्यः स वन्द्यते ॥ प्रस्तुत रचना में साहित्यिक विद्या ही नहीं अपितु इतिहास भी गर्भित हैं । वर्णी जी के समय जैन समाज में अजान अन्धकार छाया था। रूढियों का प्रचलन था. उन्मार्ग में लोग गमनशील थे। वर्णीरूप सूर्य के उदय होते ही इन सभी बुराइयाँ का अवशेष नहीं रहा। शास्त्री वर्णी जी के उदय को सूर्योदय कहने में सार्थकता सिद्ध हुई - अज्ञान-निविऽध्वान्ते रूढिगर्तेऽतिभीषणे । उन्मार्गे पततां दिष्टया वर्णि सूर्योदयाऽभवत् ॥ वर्णी जी का माहात्म्य प्रकट करने में भी कवि को आशातीत सफलता मिली है। उनकी वर्णन शैली में स्वाभाविकता परिलक्षित होती है । वर्णी जी के दिवङ्गत होने पर श्रावकश्राविका छात्र तथा अन्य जनों को उनके विरह का ऐसा दुःख हुआ था, जैसा चकवा पक्षी को वियोग का दुःख होता है - तस्मिन्नदृश्यतां याते चक्रवाकाइवार्दिता । श्रावका-श्राविका विज्ञाश्छात्राश्चान्येऽपि मानवाः ॥ __ पूज्य वर्णी के प्रभाव को प्रभावरयुक्त पदावली में अङ्कित करते हुए आज भी विद्यमान बताया गया है । समाज में जो आज ज्ञानदीप, अज्ञान-अंधकार का नाश कर रहे हैं, यह उनकी देन हैं । रचनाकार ने स्वयं लिखा है तदभावेऽपि तत्तेजः समाश्रित्य तमश्छिदः । ज्ञानदीपाः, प्रकाशन्ते समाजे बहुसंख्यकाः ॥ पूज्य वर्णी जी छात्रों के लिये कल्पवृक्ष, विद्वानों के लिये कामधेनु और संस्थाओं के लिये चिन्तामणि स्वरूप थे । कवि के इस कथन में न केवल श्रद्धा-भक्ति ही है, अपितु यथार्थता का उद्घोष भी है । पूज्य वर्णी जी को नमन करते हुए कवि ने लिखा है -
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy