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________________ 173 माता-पिता की आध्यामिक भावनाओं और उनके धार्मिक आचरण पर संतर्ति पर मूक प्रभाव पड़ता है । कवि ने ज्ञानमती आर्यिका के व्रताचरण में मूल रूप से उनकी माता आर्यिका रत्नमती का प्रभाव बताया है। सत्संयमज्ञान विशुद्धिरस्याः, लोके प्रसिद्धा ऽ भवदार्यिकायाः । स्वमातृ - संस्कार-शुभप्रभावः, तत्रास्ति मूलं न हि संशयोऽत्र ॥ सद् गृहस्था अपनी गृहिणी को गृह में नहीं फँसाये रहना चाहता । वह सदैव गृहिणी को धार्मिक आचरणवान्, जनहितकारी और मोह विहीन होने का उपदेश देता है । रचनाकार ने आर्यिका रत्नमती के गृहस्थावस्था के पति सेठ छोटेलाल को ऐसा ही आदर्श गृहस्थ निरूपित किया है तथा गृहस्थावस्था में पति आज्ञानुसार धार्मिक-आचरण में लीन नारी का आदर्श स्वरूप निम्न प्रकार प्रस्ततु किया है - मृत्योः पूर्वं गृहपतिरिमां मोहिनीमुक्तवान् यद्, धर्मान्नित्यं जनहितकराद्, मोहतो वारिताऽसि । धर्मध्याने भवसि शुभगे साम्प्रतं त्वं स्वतन्त्रा , धृत्वोक्ताज्ञां निजगृहपतिं नित्यमेवाचरत्सा ।। दृढ़ इच्छा-शक्ति आगत बाधाओं में भी अडिग रहती है । आर्यिका रत्नमती को परिजनों ने उनके व्रत लेने में बाधाएं उपस्थित की किन्तु उनके दृढ़ निश्चय के आगे वे परास्त हो गये । कवि ने इस सिद्धान्त का उल्लेख इस प्रसंग में इस प्रकार किया है - आचार्यवर्योऽपि परीक्ष्य सम्यक्, स्वाज्ञा प्रदानेन समन्वग्रह्णात् । मनोबले यस्य दृढत्वमस्ति, स्वकार्यसिद्धो सफलः स नूनम् ॥ मोहनी के दृढ़ निश्चय को देखकर परीक्षा करके आचार्य धर्मसागर महाराज ने आर्यिका के अनुरूप आगमोक्त व्रत धारण कराये और उनका नाम रत्नमती यह सार्थक नाम रखा था - आचार्यवर्येण शुभे मुहूर्ते दीक्षा प्रदत्ता ऽऽ गमसम्मताऽस्यै । दत्वार्यिकायोग्यपदं तदानीम्, समर्थिता रत्नमतीति संज्ञा ।। सम्वत् तिथि आदि का उल्लेख करने में आर्यिका रत्नमती के दीक्षा सम्वत् को शब्दों में व्यक्त किया गया है । ऐसे सम्वत् बायीं ओर से दायीं ओर पढ़े जाते हैं । कवि की यह लेखन शैली इस प्रकार द्रष्टव्य है - अष्टद्विशून्य द्विमितः शुभंयुः, पुण्योत्सवे तत्र च विक्रमाब्दः । मासस्तदाऽसीत् शुभमार्गशीर्षः, कृष्णश्च पक्षः सुतिथिस्तृतीया ॥ इस श्लोक में आर्यिका रत्नमती की दीक्षा तिथि विक्रम संवत् 2028 मगशिर वदी तीज बतायी गयी है । कवि ने उपमाओं का भी यथास्थान प्रयोग किया है । आर्यिका ज्ञानमती के सङ्घ में स्थित आर्यिका रत्नमती को कल्पवृक्ष की छाया के समान बताकर उन्हें सेवनीय निरूपित किया है पूज्यार्यिका ज्ञानमतीः सधे रत्नत्रयाराधनतत्परास्ति ।। सङ्घस्थितानां खलु कल्पवृक्षच्छायेव सा सम्प्रति सेवनीया ॥ अन्त में कवि ने पृथिवी को अलङ्कत करने वाले अनेक रत्नों को जन्म देने से आर्यिका रत्नमती का सार्थक नाम बताकर उन्हें नमन किया है - '
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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