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रचना के मध्य में आचार्य श्री के जन्मस्थान, माता-पिता, दीक्षा एवं उनके सङ्घ की साधु-संख्या का उल्लेख किया है । रचना के अन्त में आचार्य श्री के व्यक्तित्व की झाँकी प्रस्तुत करते हुए कवि ने उन्हें लोकेषणाओं से निस्पृही, सद्धर्म सिद्धान्त समूह की मूर्ति और शुद्धात्मा-प्राप्ति का उद्यमी कहा है तथा उनके दीर्घायुष्य की निम्न शब्दों में कामना की है
लोकैषणा- निस्पृहतां दधानः, सद्धर्म सिद्धान्त समूहमूर्तिः । शुद्धात्मसम्प्राप्तिकृतश्रमोऽयं, जीयात् जिनाचार्यवरश्चिराय ॥
डा. दामोदर शास्त्री की दूसरी स्फुट रचना पूज्या आर्यिका रत्नमती प्रशस्ति है, जो 'पूज्यार्यिकां रत्नमती नमामि' शीर्षक से प्रकाशित हैं 120
प्रस्तुत प्रशस्ति में श्री शास्त्री जी द्वारा रचित 41 श्लोक हैं । ये श्लोक विभन्न-9 संस्कृत छन्दों में निर्मित हुए हैं । सर्वाधिक प्रयोग उपजाति छन्द का हुआ है । द्रष्टव्य है3. 10. 11, 15, 16, 17, 18, 27, 29, 31, 32, 33, 34, 35, 36, 17 श्लोक । वसंततिलका और इन्द्रवज्रा छन्दों में छह-छह श्लोक रचे गये हैं। जिन श्लोकों में वसन्ततिलका प्रयुक्त हुआ है वे श्लोक हैं - 6, 7, 8, 9, 19 और 21 तथा इन्द्रवज्रा छन्द से निर्मित छह श्लोक हैं - 12, 22, 23, 37, 38 और 39 मन्दाक्रान्ता- 13, 20, 24, 25, इन चार श्लोकों में द्रष्टव्य हैं । शार्दूलविक्रीडित 5 और 14 वें श्लोक में तथा वंशस्थ 28 और 30 वें श्लोक में व्यवहत हैं । अनुष्टुप छन्द भी प्रथम और द्वितीय इन दो श्लोकों में ही प्राप्त हैं। चतुर्थ और छब्बीसवें श्लोक में क्रमशः भुजङ्गप्रयात और उपेन्द्रवज्रा छन्द प्रयुक्त हुए हैं।
आर्यिका रत्नमती का गृहस्थावस्था का नाम मोहिनी था । बाराबंकी जनपद में टिकैतनगर के सेठ छोटेलाल उनके पति थे। कवि ने आर्यिका, रत्नमती के गार्हस्थिक जीवन की आवासभूमि टिकैतनगर को धार्मिक ग्रहस्थों की आवासभूमि बताकर नगर का प्रसङ्गानुकूल समीचीन वर्णन
किया है -
वारावंकी - जनपदे टिकैतनगराह्वः,
सधार्मिकाणामावासः ग्रामो भुवि विराजते॥ भारतीय नारी के आदर्श जीवन चरित्र का कवि ने आर्यिका माता के जीवन चरित्र के रूप में उल्लेख किया है । उन्होंने श्रीमती मोहिनी के जीवन चरित की संक्षिप्त झाँकी प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि वे जैनशासन की अनुगामिनी थी । जैनशासन के अनुसार ही गार्हस्थ धर्म का निर्वाह करती थी । आर्यिका “ज्ञानमती" उनकी ही प्रथम कन्या हैं, जिनका पूर्व नाम "मैना" था -
गृहस्थधर्म जिनशासनोक्तं, सा "मोहिनी" सन्ततमाचरन्ती । मैनेतिनाम्नी सुभगां सुकन्यां, प्रसूतवत्याभिजनप्रशस्ताम् ॥
मैना का जन्म शरद् पूर्णिमा के दिन हुआ था । वे शरच्चन्द्रिका के समान वर्द्धमाना हुई । वाल्यावस्था से ही उनके मन में आत्मकल्याण की भावना रहीं। इसी का परिणाम है कि वैराग्य भाव से युक्त होकर वे आर्यिका हुई । कवि ने उनके जन्म और वाल्यकाल के स्वाभाविक विचारों को निम्न प्रकार दर्शाया है -
शरत्पूर्णिमाययं प्रजाता वरेण्या, शरच्चन्द्रिकावच्छ्रिया वर्द्धमाना । स्वबाल्यादियं स्वात्मकल्याणकामा, प्रशस्तान् बिभर्ति स्म वैराग्यभावान् ।।
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