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________________ 171 साञ्जलिभिः सा परमानन्दा । जयतु काऽपि देवी माँ - 'चन्दा' ॥ डॉ. दामोदर शास्त्री डॉ. शास्त्री जी का जन्म ईसवी 1942 में राजस्थान के चिरावा, झुंझनु में विख्यात एक संस्कृत सेवी परिवार में हुआ था । वैशाली के प्राकृत व जैन विद्या शोध संस्थान बिहार विश्वविद्यालय से प्राकृत व जैनालाजी में प्रथम श्रेणी में एम.ए. परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् संस्कृत विश्वविद्यालय से आपने व्याकरणाचार्य, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व में एम.ए. और भागलपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. किया था । आप जैन दर्शन में वाचस्पति उपाधि से अलंकृत भी हुए । वर्तमान में आप लालबहादुर संस्कृत विद्यापीठ दिल्ली के जैनदर्शन विभाग के अध्यक्ष पद पर कार्यरत हैं । जैनदर्शन के अध्ययन-अध्यापन का आपके जीवन पर गहरा प्रभाव है । जैन साधुओं से आपके मधुर सम्बन्ध हैं । संन्ध ही नहीं उनके प्रति श्रद्धाभाव भी यथेष्ट है । यही कारण है कि समय-समय पर प्रकाशित हुए साधु-साध्वियों के अभिनन्दन ग्रन्थों में आपकी स्फुट रचनाएं प्रकाशित हुई हैं । इन रचनाओं में दो रचनाएँ मुख्य हैं - आचार्य श्री धर्मसागर महाराज का जीवन परिचय और आर्यिका रत्नमती प्रशस्ति । आचार्य धर्मसागर महाराज के प्रति व्यक्त किये गये शास्त्री जी के उद्गार 'नं नम्यते मुनिवरप्रमुखाय तस्मै' शीर्षक से संस्कृत पद्यों में आचार्य श्री धर्मसागर अभिनन्दन ग्रन्थ के पृष्ठ 223-224 में प्रकाशित हुए हैं । शास्त्री जी की यह अल्पकाय, रचना मात्र पन्द्रह श्लोकों में निबद्ध हैं । आचार्य का परिचय इसका विषय है । इसमें मात्र विषय का ही प्रतिपादन किये जाने से इसे स्फुट रचना माना गया है ।। . प्रस्तुत रचना के प्रथम दो श्लोकों में शार्दूलविक्रीडित, तीसरे श्लोक में स्रग्धरा, चौथे से चौदहवें श्लोक तक वसन्ततिलका और अन्तिम पन्द्रहवें श्लोक में उपजाति छन्द का प्रयोग हुआ है । रचना के आदि में कवि ने शास्त्रों के अध्ययन, श्रवण और मनन से पवित्र हुई मति, आध्यात्मिक साधना से उत्पन्न चारित्रिक उज्ज्वलता, और कर्म क्षय हेतु उग्रतम रूप प्रयत्न- इन तीन हेतुओं से आचार्य धर्मसागर के पूज्य होने की उद्घोषणा की है तथा श्रद्धा पूर्वक उन्हें नमन किया है । कवि की पङ्क्तियाँ निम्न प्रकार है - सच्छास्त्राध्ययनाच्छुतार्थमननाद् यस्यावदाता मतिः, यस्याध्यात्मिकसाधनाभुवि सदा चारित्रमत्युज्जवलम् । तं विद्वत्प्रवरं निजोग्रतपसा कर्मक्षयायोद्यतं, पूज्यं श्रीयुत धर्मसागर जिनाचार्यं नुमः श्रद्धया । कवि ने इस रचना के शीर्षक में दी गयी पङ्क्ति का चौदहवें श्लोक में प्रयोग किया है । तथा आचार्य श्री को - धार्मिक शिथिलाचार का विरोधी, सम्यग्क् ज्ञान, दान और शुभ कार्यों में प्रवृत्त तथा आर्ष-परम्परा का पोषक बताकर और श्रेष्ठ मुनि के रूप में उन्हें रचना के अन्त में भी नमस्कार किया है - यस्यास्ति धर्मशिथिलाचरणे विरोधः, सज्ज्ञानदानशुभकर्मणि यत्प्रवृत्तिः । यः पोषका भरति चार्षपरम्परायाः, नं नम्यते मुनिवर प्रमुखाय तस्मै ।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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