________________
170
वरैया के निवास स्थान का उल्लेख करते हुए उनकी आदर्श कीर्त्ति का निम्न शब्दों में उद्घोषणा की है
उज्ज्वला कीर्तिर्यदीया, बुध- समाजे दर्शनीया, जन्मना जातः कृतार्थो, यस्य शुभ लक्ष्मण-निवासः । जयुत गुरु गोपालदासः ॥
वरैया जी की ज्ञानदान प्रवृत्ति ही नहीं वाणी भी अद्वितीय थी । उनके आगे सभी नत हो जाते थे । वे हाथी रूपी वादियों को सिंह स्वरूप थे । नयों का उनमें विलास था । इन सब विशेषताओं को कवि ने इस प्रकार व्यक्त किया है
अद्वितीया यस्य वाणी, को नु यं प्रति नतः प्राणी । वादि- - गज केसरि वरैया, यस्य नयसिद्धो विलासः । जय नसिद्ध विलासः ॥
मुरैना- श्री वरैया जी की कर्म भूमि थी । वरैया जी का योग उसे बड़े पुण्य से मिला था । जितना हो सका, उसके विकास में श्री वरैया जी संलग्न रहें । उनके दर्शन मधुर और प्रभावशाली थे । कवि की दृष्टि में उनका व्यक्तित्व महान् ही नहीं अद्भुत भी था । कवि की इस संबन्ध निम्न पङ्क्तियाँ द्रष्टव्य है
I
दर्शनदृष्ट प्रभावः, यो ये विद्वतो विविध कृत्ये
श्री ' प्रणयी' की दूसरी स्फुट रचना " जयतु काऽपि देवी माँ चन्दा" शीर्षक से प्रकाशित हुई है ।" इस रचना में रचनाकार ने माता चन्दाबाई आरा की जीवन झांकी प्रस्तुत की है। उन्होंनें चन्दाबाई के कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए उनके कारुणिक स्वभाव का उल्लेख किया है तथा उनके स्नेह को अकाम स्नेह बताया है
कोटि जैन- बाला विश्रामः, यस्याः स्नेहो नित्यमकामः, या स्वकीय निः सीम-कारूण्या, सिञ्चति निखिल जनान् स्वच्छन्दा ॥ जयतु काsपि देवी माँ 'चन्दा'
-
विचित्र महानुभावः, पुण्य- मोरेना विकासः । जयतु गुरु गोपालदासः ॥
माता जी के स्वभाव का उल्लेख करते हुए रचनाकार ने उन्हें न्यायप्रेमी बताकर सम्पूर्ण कलाओं में बिजली के समान अमन्द प्रगति करने वाली तथा अन्याय सहन न करने वाली होने का निम्न पङ्क्तियों में भली प्रकार उल्लेख किया है.
लोकशास्त्रयोर्दधती न्यायम्, या क्षणमपि सहते नाऽन्यायम्, सकल कलस्वमलासु यदीया, भवति विद्युदिव प्रगतिरमन्दा । जयतु काऽपि देवी माँ 'चन्दा' ॥
माता जी इस जगत् को तृण के समान तुच्छ - निस्सार मानती थीं । उन्हें लाभ होने पर हर्ष और हानि होने पर विषाद नहीं होता था । वे ज्ञान की भंडार होने से सभी के लिये सानन्द हाथ जोड़कर नम्य थीं । रचनाकार के इन भावों की निम्न पंक्तियों में अभिव्यक्ति हुई है
तृणमिव या मनुते जगदेतत्, तस्यै चेदलभ्यं किं रे तत्, ज्ञानमयी सर्वैर्नमस्यताम्