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________________ 168 एकस्मिन् समये पुराकलकतानाम्नि प्रसिद्धे पुरे, आसीद्धिश्रुत वाग्मिनामनुपमा नैयायिकानां सभा । श्रीमांस्तत्रभवान्नय मन्त्रि च ददे जैनोत्तमं भाषणं विद्वत्तल्लजमण्डलेन पदवी सन्नयायवाचस्पतिः ॥7॥ कवि ने श्री वरैया के परिचय से संस्कृत भाषा को गौरवान्वित किया है । रचना में प्रौढ़ता है । भाषा सन्धि, समास पूर्ण होते हुए ललित पदों से युक्त हैं । श्री रामसकल उपाध्याय श्री उपाध्याय जी ने भी पं. चन्दाबाई जी को अपनी श्रद्धांजलि समर्पित की है। यह रचना पन्द्रह श्लोकों में हैं । 13 उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं दो आरम्भ में ब्र. चन्दाबाई द्वारा बिहार प्रान्त के आरा नगर में 'बाल विश्राम' की संस्थापना किये जाने का उल्लेख करते हुए रचनाकार ने उन्हें करूणा का सागर, धीर-बुद्धि, चन्द्र के समान निर्मल कीर्ति वाली बताया है - प्रान्ते बिहारे रमणीयमेकम् आराभिधं पत्तनमस्ति रम्यम् । तस्योपकण्ठे दिशि वासवस्य बालादि विश्रामशुभं निकतम् ॥ संस्थापयामास महामहिम्नी कारूण्यरत्नाकरधीर बुद्धिः । चन्द्रावती चन्द्र विनिर्मला सा विशालकीत्तिर्जयतु प्रकामम् ॥ कवि ने ब्र. पं. चन्दाबाई के पाण्डित्य की सफलता का उद्घोष करते हुए लिखा है कि वे इस संसार को दुःख पूर्ण जानकर इससे पार होने के लिये परिव्राजिका हो गयी थी । कवि की दृष्टि में भारत- वसुन्धरा पर ऐसी नारियां विरली ही हुई हैं । वे नारी - रत्न थीं, इन भावों के कवि ने इन शब्दों में व्यक्त किया है संसारमेनं खुलदुःखभारं, विचार्य बुद्ध्या परिव्राजिकाऽभूत् । एवं विधं भारतभूमिभागे, नारीसुरत्नं विरलंबभूव ॥ श्री हरिनाथ द्विवेदी - आपने पं. चन्दाबाई आरा को जैसा देखा और समझा अपने भावों के अनुसार संस्कृत भाषा के माध्यम से उनका चरित्र चित्रण किया है ।114 आपने पं. चन्दाबाई जी को सर्वशास्त्रों में पारङ्गत, अर्हता-वाणी की परम श्रद्धालु और मिथ्यात्वी उलूकों को तेजस्वी सूर्य की दीप्ति बताते हुए लिखा है अधीति - सर्वशास्त्रणां प्रचण्ड भास्करी प्रतीति दीप्तिरूलूक सर्वदार्हताम् । कुश्रुतात्मनाम् ॥3॥ रचना के अन्तिम दसवें श्लोक में पं. चन्दाबाई जी के शतायु होने की कामना करते हुए रचनांकार ने उन्हें चन्द्रमा की किरणों के समान उज्ज्वल बताकर उनके चन्दा नाम की सार्थकता प्रकट की है । कवि ने लिखा है चन्द्रकरोज्ज्वला, सदब्रह्मचारिणी सेयं सूरिर्विज्ञा शतं जीयाद्विद्वभिरभिनन्दिता 117011 इस प्रकार कवि ने अपनी स्फुट रचनाओं से संस्कृत भाषा की रचनाओं में समृद्धि की है । रचना में भाषा का प्रवाह है । अलंकारों का प्रयोग है । वर्णन के अनुकूल पदों का प्रयोग भी स्तुत्य है । - 'चन्दा'
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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