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दूसरी रचना में बीस श्लोक हैं । इनमें वर्णीगाथा प्रस्तुत की गयी है । श्लोकों के चौथे चरण में पूज्य गणेशप्रसाद वर्णी के चिरायु होने की कामना गर्भित है । वर्णी जी की भाषा के सम्बन्ध में कवि ने उद्घोषणा की है कि वर्णी जी के बोल - प्रसन्नता वर्द्धक थे, उनमें विवाद के लिए कहीं भी गुंजाइश न थी । अपवाद के समय में मौन रहते थे । उनकी बोली धन्य है । ऐसी पुण्यकारिणी बोली बोलने वाले वर्णी चिरायु हों । रचनाकार ने अपने विचार निम्न शब्दों में व्यक्त किये हैं
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यदीयभाषा परमा प्रसन्ना, विवादशून्या अपवादमौन्या । धन्या वदान्या वरपुण्ययुक्ता, जीयाच्चिरं वर्णिगणेश एषः ॥
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प्रस्तुत उदाहरण से कवि की कल्पनाओं का रचना - शैली का और उनके संस्कृत ज्ञान की सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है ।
पं. राजधरलाल जी व्याकरणाचार्य
आपका जन्म उत्तरप्रदेश में ललितपुर जिले केगुरसौरा (जखौरा ) ग्राम में संवत् 1970 में हुआ था । श्री नन्दलालजी 'गोलावारे' आपके पिताजी थे । आपका अध्ययन क्षेत्रपाल ललितपुर स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी में हुआ । पं. शीलचन्द्र जी और पं. कैलाशचन्द्र
आपके गुरु थे ।
दिगम्बर जैन गुरूकुल हस्तिनापुर, श्री गो. दि. जैन सिद्धान्त महाविद्यालय, मुरेना, ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम, मथुरा और वीर विद्यालय पपौरा में अध्यापन के रूप में आपने अपनी सेवाएँ दीं । लगभग 40 वर्ष का समय आपका अध्यापन में ही बीता । जैन दर्शन के मर्मज्ञ तो थे ही, व्याकरण का भी आपको अच्छा ज्ञान था । मुरेना विद्यालय में आप साहित्य और व्याकरण ही पढ़ाते थे । आपकी कार्यकुशलता से प्रभावित होकर समाज ने हस्तिनापुर में आपकी प्राचार्य पद पर नियुक्ति की थी । साधु-सन्तों पर भी आपका अच्छा प्रभाव रहा। आपकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर आचार्य शिवसागर महाराज ने अपने संघस्थ मुनियों को धार्मिक शिक्षण आप ही से दिलवाया था ।" "
संस्कृत भाषा पर आपका अधिकार रहा है। भाषा में सरल हैं । सन्धि और समासों का प्रयोग होते हुए भी भाषा में दुरुहता नहीं है ।
आपकी 'श्री गोपालदासेतिवृत्तम् 12 शीर्षक से प्रकाशित स्फुट रचना में गुरू गोपाल दास जी का जीवनवृत्त अङ्कित है । उदाहरण स्वरूप द्रष्टव्य हैं दो पद्य श्री वरैया 'जातो गुरूणां - गुरु: ' हैं । मध्यप्रदेश का मुरैना शहर उनकी कर्मभूमि थी । तीस वर्ष की आयु में उन्हें आत्मबोध हो गया था। उनकी बुद्धि सत्यं शिवं सुन्दरं थी। वे जैनधर्मी थे । कुशल थे । कवि ने इन विचारों को इस प्रकार संस्कृत पद्य में व्यक्त किया है। मोरेनानगरी मङ्गलवता व्यापारि येनोच्छ्रितं, त्रिंशद्वर्षमितायुषः पुनरहो भावैरजागः सुधी । स्वात्मन्यात्म समाध्ये कृतमतिः सत्यं शिवं सुन्दरं, जैन धर्ममथावगाह्य कुशली जातो गुरूणां गुरुः ॥1॥
श्री वरैया जी न्यायवाचस्पति उपाधि से विभूषित थे । यह उपाधि उन्हें कलकत्ता में नैयायिकों की सभा में जैनधर्म पर दिये गये उत्तर भाषण पर प्राप्त हुई थी । कवि ने वरैया जी की इस विशेषता का निम्न प्रकार उल्लेख किया है -