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________________ - 160 प्रशस्ति सरोवर के नामसे ही स्पष्ट होती हैं - राजा के यश को स्थायी रखने के लिये ही इस क्षेत्र का अपर नाम- “मदनेश सागर पुर" भी रखा गया । । यहाँ एक व्यापारी पाणाशाह का रांगा भी चांदी के रूप में परिवर्तित हो गया था इसीलिए उसने पर्वतों पर गंगनचुम्बी मन्दिरों और भवनों का निर्माण कराया । यहाँ उन्होंने एक मासोपवासी मुनिराज को नवेधाभक्तिपूर्वक अहार दिया जिससे इस क्षेत्र का नाम “अंहार" पड़ी, जो बाद में "अहोर जी' के नाम से प्रसिद्ध हुआ - कृत्वा सपर्या भगवज्जिनस्य मुनिं ददर्शाथ ददावहारम् । आहारनाम्नां हि ततः प्रसिद्ध अहारतीर्थ प्रणमामि नित्यम् ॥ इस क्षेत्र के प्रथम जिनालय में भगवान् शान्तिनाथ की (18 फुट ऊँची) अत्यन्त मनोज्ञ, सुखशान्तिदायक कायोत्सर्ग मूर्ति है । इस क्षेत्र के जिनालयों को मेरु के समान दिव्यंतां, बहुसंख्यता, मनोज्ञता, सातिशयता का नयानाभिराम दृश्यं मानव मन पर संस्कृति के स्वर्णिम अध्याय को अंकित करता है । यहाँ के सुप्रसिद्ध प्राचीन शान्तिनाथ सङ्गहालय मैं खण्डित एवं अखण्डित मूर्तिया बहुसंख्या में है । कभी-कभी देवाङ्गनाएँ, किन्नरों के द्वारा रात्रि काल में प्रस्तुत किये गये संगीत की ध्वनियाँ भी सुनी जाती हैं । इसे क्षेत्र की व्यवस्था जैन-प्रबन्धकारिणी समिति समर्पण भाव से करते हुए यहाँ की उन्नति के लिये प्रयत्नशील है । मैं (बारेलाल) पूर्ण भक्तिभाव से पुण्यं क्षेत्र की स्तुति में यह स्तोत्र गान करता हूँ। (स्व.) पं. ठाकुर दास शास्त्री - परिचय - श्री शास्त्री जी का जन्म उत्तर प्रदेश में झांसी जिले के तालवेहट नगर में हुआ था । शास्त्री और बी.ए. परीक्षाएँ उत्तीर्ण करने के पश्चात् आपने शासकीय विद्यालयों में अध्यापन कार्य किया । टीकमगढ़ आपकी कर्मस्थली थी। __ आप बहुश्रुताभ्यांसी और विद्या व्यवसनी थे । श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी ने समयसार का प्रामाणिक संस्करण निकालने के लिये जिन दो विद्वानों का चयन किया था, उनमें एक आप भी थे । आपको उत्कृष्ट विद्वत्ता और आदर्श साहित्यिक अभिरुचि के कारण महाराजा वीरसिंह जू देव, ओरछा नरेश, देश के ख्यातिलब्ध पत्रकार बनारसीदास जी श्री साहित्यकार यशपाल जी, आदि अनेक लोग आपसे प्रभावित हुए हैं। श्री दि.जैन अतिशय क्षेत्र पपोरा तथा वीर विद्यालय की अनवरत अठारह वर्षों तक मंत्री के रूप में सेवा की थीं । स्व. राष्ट्रपति राजेन्द्रप्रसाद जी आपकी ही प्रेरणा से ही 29 मार्च 1953 में पपौरा पधारे थे। . हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी और गणित पर आपका असाधारण अधिकार था । जैन दर्शन के मर्मज्ञ विद्वान् थे । आगमानुकुल अचार-विचार के भंडार थे । आपकी सर्वतोन्मुखी विद्वत्ता का उच्चकोटि के विद्वान भी लोहा मानते थे । स्मरण शक्ति भी आपकी अलौकिक थी । अनेक श्लोक आपको कण्ठस्थ थे । धर्म, समाज, तीर्थ, साहित्य एवं देश सेवा में आपका सराहनीय योगदान रहा है। आपकी नि:स्वार्थ त्यागवृत्ति से विद्वत्ता गौरवान्वित हुई है । भयङ्कर बीमारियों और कठोर कठिनाईयों में भी आपने चारित्र और संयम की पूर्ण रक्षा की " महान् लोकोपकारी टीकमगढ़ के अद्वितीय विद्वान् श्री शास्त्री जी का 9 जून, 1965 के प्रातः तीन बजे स्वर्गवास हो गया । उनके न रहने से समाज की जो क्षति हुई है, उसकी | पूर्ति होना असंभव है।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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