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________________ 159 रचनाकार का उद्देश्य - जैनादर्शों के प्रतिरचनाकार की हृदयस्थ आस्था ही इस रचना के सृजन का प्रधान उद्देश्य है । . अनुशीलन - कर्मन्द्रिय विजय, लोकहित, अनिष्टनाश आदि में जैन ही सक्षम हैं । रागद्वेष से दूर आत्मालोचन करने एवं दया-दान-शांति-संतोष-सेवा, सुश्रुषा-सुशीलता शुचिता धारण करने के कारण जैन मनीषि परम पूज्य हुए हैं । जैन मतावलंबी, आत्मज्ञानी, प्रसन्नात्मा, गुणग्राही, परोपकारी और विवेकशील होता है । जो अपनी आत्मा के प्रतिकूल दूसरों के साथ व्यवहार नहीं करता, ऐसा जैन, समाज में लोकप्रिय हो जाता है। "राजवैद्य" पं. बारेलाल जी जैन" परिचय - पं. बारेलाल जी जैन व्यक्ति नहीं, संस्था थे । वे टीकमगढ़ जिले के पठा ग्राम में जन्मे थे । आयुर्वेद, संस्कृत और संस्कृति उनके प्रिय विषय थे । वे जैन संस्कृति के प्रसिद्ध सिद्ध क्षेत्र अहार जी और वहाँ पर सञ्चालित श्री शान्तिनाथ जैन विद्यालय के लगभग 45 वर्ष तक मंत्री रहे । आपके मंत्रित्व काल में क्षेत्र तथा विद्यालय और संस्कृत साहित्य की आशातीत प्रगति हुई । संस्कृत भाषा और साहित्य पर उनका प्रकाम पाण्डित्य था । अहार क्षेत्र में सर्वप्रथम जैन संग्रहालय की स्थापना हुई - पं. बारेलाल जी की सुरुचि और व्यवस्था प्रियता से अहार क्षेत्र की संस्थाएँ उत्तरोत्तर उत्कर्ष को प्राप्त हुई । वे विधिविधान के वेत्ता मान्य प्रतिष्ठाचार्य भी थे । उनके आचार्यत्व में अनेक महोत्सव सम्पन्न हुए हैं । उनके द्वारा रचित संस्कृत काव्य रचनाओं में से "श्री अहार तीर्थ स्तवनम्" का प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में उपयोग किया गया है। "राजवैद्य पं. बारेलाल जी" "श्री अहार तीर्थ स्तवनम् : ___ यह एक लघुस्तोत्र काव्य रचना है । जिसका प्रणयन श्री अहार क्षेत्र प्रबन्धकारिणी के वरिष्ठ मन्त्री श्री स्व. पं. बारेलाल जी जैन "राजवैद्य" ने किया है । नामकरण - इसमें अहारतीर्थ की गौरवमयी स्तुति होने के कारण ही इसका नाम "श्री अहारतीर्थस्तवनम्" रखा है जो सर्वथा उपयुक्त है और सार्थक है। आकार - यह लघु रचना 16 पद्यों में निबद्ध है, जिसे हम लघुस्तोत्रकाव्य भी कह सकते हैं। प्रयोजन - इस संस्था की निरन्तर प्रगति और उन्नयन के लिये प्रयत्नशील कवि हृदय साहित्यकार ने क्षेत्र की गौरवपूर्ण विमल कीर्ति एवं संस्कृति को शाश्वत एवं अक्षुण करने के लिए ही इस रचना का प्रणयन किया है । इसके साथ ही रचनाकार ने तीर्थक्षेत्र के प्रति अपनी (आत्मा की) श्रद्धा प्रकट की है । विषय वस्तु - कवि ने अहार क्षेत्र को नित्य प्रणाम करने और उसकी सेवा करने का संयोग और अवसर प्राप्त किया । इसके लिए वह कृतकृत्य है । मध्य प्रदेश में स्थित चन्देलवंशीय राजाओं के द्वारा सुरक्षित जैन-मुनियों के पवित्र तपोवन जहाँ फलपुष्प से युक्त छायादार वृक्षों की पङ्क्तियाँ, पक्षियों का कलरवगान मानव मन को आकृष्ट करता है । यहाँ का "मदनेश" सागर जलाशय स्वच्छ स्फटिक की प्रभा के समान जल को धारण करता है । यह 3 मील लम्बा है इसका निर्माण "मदनेश' नामक राजा ने करवाया था, जिसकी
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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