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________________ 155 आत्मश्रद्धेव सम्यक्त्वम्, आत्मज्ञानस्य सन्मतिः । तस्मिन्स्थितिस्तु चारित्रं, त्रितयं मोक्षकारणम् ॥१० इनकी साङ्गोपाङ्ग व्याख्या करने के उपरान्त द्रव्य का परिचय देते हैं- वह सर्वकाल में व्याप्त रहता है और वस्तु, सत, अन्वय विधि इत्यादि अनेक नामों से यथार्थ रूप में विद्यमान है । द्रव्य का विभाजन अनेक प्रकार से किया जाता है - मूर्त-अमूर्त, रूपी-अरुपी, सचेतनअचेतन, एवं सक्रिय (क्रियावान)-निष्क्रिय । “गुण तत्त्व से एक द्रव्य को दूसरे द्रव्यों से पृथक् किया जाता है । यह विशेष गुण का कार्य है किन्तु सामान्य गुण-सहभूवोः गुणः है। द्रव्य का विकार "पर्याय" है । इसके दो भेद हैं - अर्थ पर्याय और व्यञ्जन पर्याय। "नय" ज्ञाता के अभिप्राय को कहते हैं । प्रमाण का अंश भी "नय" है । इसके मुख्य रूप से दो भेद हैं -निश्चयनय और व्यवहार नय । "निक्षेप" यह अप्रकृत अर्थ का निराकरण और प्रकृत अर्थ का प्ररुपण करता है । इसका विवेचन नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार शास्त्रों में हुआ है । धर्म शब्द की व्युत्पत्ति पूर्वक व्याख्या की है कि "धृ" धातु से मन् प्रत्यय होने पर "धर्म" शब्द बनता है । वस्तुका स्वभाव ही धर्म है । इस कारण द्रव्य का स्वभाव उसका धर्म है जिसे वह कभी नहीं छोड़ता। इस प्रकार विवेच्य ग्रन्थ में जैन दर्शन के प्रसिद्ध सिद्धान्तों, तत्त्वों का सम्यक् प्रतिपादन हुआ है। पद्मप्रभस्तवनम् १ : आकार - यह पच्चीस पद्यों में निबद्ध स्तोत्र काव्य है । नामकरण - पद्मप्रभु जैन धर्म के षष्ठ तीर्थङ्कर हैं । उन्हीं की स्तुति इस काव्य में होने के कारण इसका शीर्षक "पद्मप्रभस्तवनम्" है, जो पूर्णतः सार्थक और न्यायोचित है। प्रयोजन - इस स्तोत्र की रचना का मुख्य उद्देश्य सांसारिक दुःखों को नष्ट करने, मोक्षमार्ग को प्रशस्त करने एवं विश्वबन्धुत्व का प्रचार-प्रसार करने के लिए की गई है - ऐसा उल्लेख प्रस्तुत स्तोत्र के सप्तम पद्य में हुआ है । इसके साथ ही कवि षष्ठ तीर्थङ्कर की महनीयता से समाज को परिचित कराके पाठकों के कर्मों एवं पापों को क्षीण करना चाहता है। विषयवस्तु - कवि का मन्तव्य है कि ज्ञानदर्शन के मर्मज्ञ, परोपकार में दत्तचित्त षष्ठ तीर्थङ्कर के रूप में विख्यात पद्मप्रभु पञ्चम तीर्थङ्कर सुमतिनाथ स्वामी के निर्वाण के अनन्तर 90 हजार करोड़ सागर के पश्चात् भूतल पर अवतीर्ण हुए । आपका जन्म कौशाम्बी नगरी में "धारण" राजा की रानी सुसीमादेवी के उदर से हुआ । एक समय दरवाजे पर बँधे हुए हाथी को देखकर पद्मप्रभु जी को अपने पूर्वभवों का ज्ञान (जातिस्मरण) हो गया । तदनन्तर "मनोहर" वन में पहुँचकर प्रियंगु वृक्ष के नीचे एक हजार राजाओं के साथ कार्तिक कृष्णा 13 को चित्रा नक्षत्र के अपराह्न दीक्षा धारण की और बेला किया । फलतः इसी वृक्ष के नीचे चैत्र शुक्ला पूर्णिमा को चित्रा नक्षत्र में अपराह्न में पद्मप्रभु जी को "केवलज्ञान प्राप्त हुआ है
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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